SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Tererrer [167ररर र रररररर कहते हैं कि यदि वर्णव्यवस्था रंग पर प्रतिष्ठित है, तो फिर फिरंगी (अंग्रेज) लोगों को ब्राह्मणपना प्राप्त होगा, क्योंकि वे श्वेतवर्ण वाले हैं । तथा काले वर्ण वाले श्री कृष्ण नारायण शूद्रपने का अतिक्रमण नहीं कर सकेंगे, अर्थात् वे शूद्र कहे जावेंगे । इसके अतिरिक्त ऐसा एक भी घर नहीं बचेगा जिसमें अनेक वर्ण के लोग न हों। अर्थात् एक ही मां-बाप की सन्तान गौरी-काली आदि अनेक वर्ण वाली देखी जाती है, तो उन्हें भी आपकी व्यवस्थानुसार भिन्न-भिन्न वर्ण का मानना पड़ेगा ॥२८॥ दशास्य-निर्भीषणयोश्च किन्नाप्येकाम्बयोरप्युत चिद्विभिन्ना । न जातु जातेरुदितो विशेष आचार एवाभ्युदयप्रदेशः ॥२९॥ देखो-एक माता के उदर से उत्पन्न हुए दशानन (रावण) और विभीषण में परस्पर कितना अन्तर था ? रावण रामचन्द्र का वैरी, क्रूर और काला था । किन्तु उसी का सगा भाई विभीषण राम का स्नेही, शान्त और गोरा था । एक ही जाति और कुल में जन्म लेने पर भी दोनों में महान् अन्तर था । अतएव जाति या कुल को मनुष्य की उन्नति या अवनति में साधक या बाधक बताना भूल है । जाति या कुल विशेष में जन्म लेने मात्र से ही कोई विशेषता कभी भी नहीं कही गई है । किन्तु मनुष्य का आचरण ही उसके अभ्युदय का कारण है ॥२९॥ आखुः प्रवृत्तौ. न कदापि तुल्यः पञ्चाननेनानुशयैकमूल्यः । तथा मनुष्येषु न भाति भेदः मूलेऽथ तूलेन किमस्तु खेदः ॥३०॥ यदि कहा जाय कि मूषक शूरवीरता की प्रवृत्ति करने पर भी सिंह के साथ कभी भी समानता के मूल्य को नहीं प्राप्त हो सकता, इसी प्रकार शूद्र मनुष्य कितना ही उच्च आचरण करे, किन्तु वह कभी ब्राह्मणादि उच्चवर्ण वालों की समता नहीं पा सकता, सो यह कहना भी व्यर्थ है, क्योंकि मूषक और सिंह में तो मूल में ही प्राकृतिक भेद है किन्तु ऐसा प्राकृतिक भेद शूद्र और ब्राह्मण मनुष्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । अतएव जातिवाद को तूल देकर व्यर्थ खेद या परिश्रम करने से क्या लाभ है ॥३०॥ भावार्थ - जैसा प्राकृतिक जातिभेद चूहे और सिंह में देखा जाता है वैसा शूद्र और ब्राह्मणादि मनुष्यों में नहीं । यही कारण है कि इतिहास और पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उच्च कुल या जाति में जन्म लेने पर भी बक राजा जैसे पतित हुए और शूद्रक राजा जैसे उत्तम पुरुष सिद्ध हुए हैं । अनेक जाति वाले पहले जो क्षत्रिय थे, आज वैश्य और शूद्र माने जा रहे हैं । इसलिए जातिवाद को महत्त्व देना व्यर्थ है । उच्च आचरण का ही महत्त्व है और उसे करने वाला ऊंच और नहीं करने वाले को नीच जाति का मानना चाहिए । सुताभुजः किञ्च नराशिनोऽपि न जन्म किं क्षात्रकुलेऽथ कोऽपि । भिल्लाङ्गजश्चेत् समभूत्कृतज्ञः गुरो र्ऋणीत्थं विचरेदपि ज्ञः ॥३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy