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अर्थान्मनस्कारमये प्रधानमघं सघं संकलितुं निदानम् । वैद्यो भवेद्भुक्तिरुधेव धन्यः सम्पोषयन् खट्टिकको जघन्यः ॥१६॥
जीवका मानसिक अभिप्राय ही पाप के संकलन करने या नहीं करने में निदान अर्थात् प्रधान कारण है। रोगी के भोजन को रोककर लंघन कराने वाला वैद्य धन्य है - पुण्य का उपार्जक है। किन्तु बकरे को खिलापिलाकर पुष्ट करने वाला खटीक जघन्य है । पाप का उपार्जन करने वाला है ॥१६॥
स्तनं पिबन् बा तनुजोऽनकाय स्पृशंश्च कश्चिन्महतेऽप्यघाय । कुलाङ्गनाया इति तत्वचिन्ता न स्युर्भवच्चेतसि विज्ञ ! किं ताः ॥१७॥
कुलीन स्त्री के स्तन को पीनेवाला बालक निर्दोष है । पाप-रहित है । किन्तु उसी के स्तन का स्पर्श करने वाला अन्य कामी पुरुष महापाप का उपार्जक है । हे विज्ञ ! क्या आपके चित्त में यह तात्त्विक विचार जागृत नहीं होता है ॥१७॥
स्वमात्रामतिक्रम्य कृत्यं च कुर्यात्तदेव प्रकर्माऽभ्यधुर्धर्मधुर्याः । प्रपाठोऽस्ति मौढ्यस्य कार्य तदेवाऽऽनिशं धार्यमाणो विकारायते वा ॥१८॥
करने योग्य अपने कर्तव्य को भी सीमा का उल्लंघन करके अधिक कार्य करने को धर्म-धुरीण पुरुषों ने प्रकर्म कहा है । देखो-शिष्य का पढ़ना ही मुख्य कर्तव्य है, किन्तु यदि वह रात-दिन पढ़ता रहे और खान-पान शयनादि सर्व कार्य छोड़ दे, तो यह उसी के लिए विकार का उत्पादक हो जाता है ॥१८॥
गृहस्थस्य वृत्तेरभावो ह्यकृत्यं भवेत्त्यागिनस्तद्विधिर्दुष्टनृत्यम् । नृपः सन् प्रदद्यान्न दुष्टाय दण्डं क्षतिः स्यान्मुनेरेतदेवैम्य मण्डम् ॥१९॥
गृहस्थ पुरुष के आजीविका का अभाव ही अकृत्य है और साधु की आजीविका करना भी अकृत्य है । राजा होकर यदि दुष्टों को दण्ड न दे, तो यह उसका अकृत्य है और यदि राज्यापराधियों को मुनि दण्ड देने लगे तो यह उसका अकृत्य है ॥१९॥
भावार्थ - सब लोगों को अपने-अपने पदोचित ही कार्य करना चाहिए । पद के प्रतिकूल कार्य करना ही अनुचित क्रिया-कारिता कहलाती है ।।
न चौर्य पुनस्तस्करायास्त्ववस्तु गवां मारणं वा नृशंसाङ्गिनस्तु । न निर्वाच्यमेतद्यतः सोऽपिमर्त्यः कुतः स्यात्पुनस्तेन सोऽर्थःप्रवर्त्यः ॥२०॥
यदि कहा जाय कि अपने पदोचित कार्य को करना मनुष्य का कर्तव्य है, तब तो चोर का चोरी करना और कसाई का गायों का मारना भी उनके पदानुसार कर्तव्यासिद्ध होता है, सो ऐसा नहीं समझना
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