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[156/Trrrrrrrrrrrrrrrr संरक्षितुं प्राणभृतां महीं सा व्रजत्यतोऽम्बा जगतामहिंसा । हिंसा मिथो भक्षितुमाह तस्मात्सर्वस्य शत्रुत्वमुपैत्यकस्मात् ॥११॥
अहिंसा सर्व प्राणियों की संसार में रक्षा करती है, इसलिए वह माता कहलाती है । हिंसा परस्पर में खाने को कहती है, और अकस्मात् (अकारण) ही सब से शत्रुता उत्पन्न करती है, इसलिए वह राक्षसी है अतएव अहिंसा उपादेय है ॥११॥
समन्ततो जीवचितेऽत्र लोके प्रकुर्वतः स्यादगतिः कुतोऽके । ततोऽस्त्वहिं से यमगेहिधर्मः किलेति वक्त्राकलितं न मर्म ॥१२॥ कुछ लोग कहते हैं कि जब यह लोक सर्वत्र जीवों से व्याप्त है, तब उसमें गमनागमनादि आरम्भ करने वाला गृहस्थ पाप से कैसे बच सकता है ? अतएव यह अहिंसा गृह से रहित साधुओं का धर्म भले ही माना जाय, पर यह गृहस्थ का धर्म नहीं हो सकती । ऐसा कहने वालों ने अहिंसा धर्म के मर्म को नहीं समझा है ॥१२॥
भवेच्च कुर्याद्वधमत्र भेदः भावे भवान् संयततामखेदः । घ्नतः कृषीशादपि धीवरः स्यादघ्नश्च पापीत्युचिता समस्या ॥१३॥
वस्तु-तत्त्व यह है कि हिंसा हो, और हिंसा करे, इन दोनों बातों में आकाश-पाताल जैसा भेद है, इसे आप खेद-रहित होकर के भाव में जानने का प्रयत्न करें । देखो-खेत जोतते समय जीवघात करने वाले किसान से घर पर बैठा हुआ और जीवघात नहीं करने वाला मच्छीमार धीवर अधिक पापी है और वस्तुतत्त्व की समस्या सर्वथा उचित है । इसका कारण यह है कि किसान का भाव जोतने का है, जीवघात करने का नहीं अतः वह अहिंसक है, और धीवर का भाव घर बैठे हुए भी मछली मारने का बना रहता है, अतः वह हिंसक है ॥१३॥
प्रमादतोऽसुव्यपरोपणं यद्वधो भवत्येष सतामरम्यः ।
अधोविधानाय तमेकमेव समासतः प्राह जिनेशदेवः ॥१४॥ प्रमाद से जीवों के प्राणों का विनाश करना हिंसा है, जो कि सत्पुरुषों के करने योग्य नहीं है, क्योंकि जीव को अधोगति ले जाने के लिए वह अकेली ही पर्याप्त है, जिनेन्द्र वीरदेव ने संक्षेप से धर्म-अधर्म का यही सार कहा है ॥१४॥
दौस्थ्यं प्रकर्मानुचितक्रि यत्वं कर्त्तव्यहानिर्वावशेन्द्रियत्वम् । संक्षेपतः पञ्चविधत्वमेति प्रमत्तत्ता यात्मपथान्निरेति ॥१५॥
मन की कुटिलता, कार्य का अतिक्रमण, अनुचित क्रियाकारिता, कर्त्तव्य-हानि और अजितेन्द्रियता (इन्द्रियों को वश में नहीं रखना) संक्षेप से प्रमाद केये पांच भेद हैं, जो कि, जीवको आत्म-कल्याण के मार्ग से भ्रष्ट करने वाले हैं ॥१५॥
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