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________________ रररररररररररररररररा168रररररररररररररर चाहिए, क्योंकि चोरी और हिंसा करना तो मनुष्यमात्र का अकर्त्तव्य कहा गया है, फिर उन अकर्तव्यों को करना कर्त्तव्य कैसे माना जा सकता है ? इसलिए मनुष्य को सत्कर्त्तव्य में ही प्रवृत्ति करना चाहिए, असत्कर्त्तव्य में नहीं, ऐसा प्रकृत में अभिप्राय लेना चाहिए ॥२०॥ पलस्याशनं चानकाङ्गिप्रहारः सनाग् वा पराधिष्ठितस्यापहारः । न कस्यापि कार्यं भवेज्जीवलोके ततस्तत्प्रवृत्तिः पतेत्किनसोऽके ॥२१॥ मांस का खाना, निरपराध प्राणियों को मारना, दूसरे की स्वामित्व वाली वस्तु का अपहरण करना इत्यादि निंद्य कार्य संसार में किसी भी प्राणी के लिए करने योग्य नहीं हैं । अतएव इन दुष्कृत्यों में प्रवृत्ति करने वाला क्यों न पाप-गर्त में गिरेगा ? अर्थात् अवश्य ही उसे पाप का फल भोगना पड़ेगा ॥२१॥ यतो मातुरादौ पयो भुक्तावान् स न सिंहस्य चाहार एवास्ति मांसः विकारः पुनर्दुर्निमित्तप्रभावात्समुत्थो न संस्थाप्यतां सर्वदा वा ॥२२॥ यदि कहा जाय कि सिंह का तो मांस खाना ही धर्म है, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि वह भी तो जन्म लेने पर प्रारम्भ में अपनी माता का ही दूध पीता है । इसलिए सिंह का आहार मांस नहीं है, किन्तु उसका विकार है, जो कि खोटे निमित्तों के प्रभाव से अपने मां-बाप आदि की देखा-देखी प्रकट हो जाता है, अतएव वह उसका स्वाभाविक और सर्वदा रहने वाला धर्म नहीं मानना चाहिए ॥२२॥ पले वा दलेवाऽस्तु कोऽसौविशेषः द्वये प्राणिनोऽङ्गप्रकारस्य लेशः वदन्नित्यनादेयमुच्चारमत्तु पयोवन्न किं तत्र तत्सम्भवत्तु ॥२३॥ यदि कहा जाय कि मांस में और शाक-पत्र में कौनसी विशेषता है ? क्योंकि दोनों ही प्राणियों के शरीर के ही अंग है, सो ऐसा कहने वाले का वचन भी उपादेय नहीं है, क्योंकि गोबर और दूध ये दोनों ही गाय-भैंस आदि से उत्पन्न होते हैं, फिर मनुष्य दूध को ही क्यों पीता है और गोबर को क्यों नहीं खाता ? इससे ज्ञात होता कि प्राणि-जनित वस्तुओं में जो पवित्र होती है, वह ग्राह्य है, अपवित्र नहीं । अतः शाक-पत्र और दूध ग्राह्य है, मांस और गोबर आदि ग्राह्य नहीं हैं ॥२३॥ दलाद्यग्निना सिद्धमप्रासुकत्वं त्यजेदित्यदः स्थावराङ्गस्य तत्त्वम् । पलं जङ्गमस्याङ्गमेतत्तु पक्वमपि प्राघदं प्रासुकं तत्पुनः क्व ॥२४॥ शाक-पत्रादि तो अग्नि से पकने पर अप्रासुकता को छोड़ देतेहैं अर्थात् वे अग्नि से पक जाने पर प्रासुक (निर्जीव) हो जाते हैं । दूसरे वे स्थावर एकेन्द्रिय जीव का अंग हैं, किन्तु मांस तो चलतेफिरते जंगम जीवों के शरीर का अंग है, अतएव वह अग्नि से पकने पर भी प्रासुक नहीं होता, प्रत्युत पाप का कारण ही रहता है, अतएव शाक-पत्रादि ग्राह्य है, मांसादि नहीं ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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