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माचिकव्वेऽपि जैनाऽभून्मारसिंगय्यभामिनी । शैवधर्मी पतिः किन्तु सा तु सत्यानुयायिनी ॥४५॥
मारसिंगय्य की भामिनी माचिकव्वे भी सत्य (जैन) धर्म की कट्टर अनुयायिनी थी, यद्यपि उसका पति शैवधर्मानुयायी थी ॥४५॥
विष्णुवर्धनभूपस्य शान्तला पट्ट देविका श्रीप्रभाचन्द्र सिद्धान्त-देवशिष्यत्वमागता
॥४६॥ विष्णुवर्धन राजा की पट्टरानी शान्तलादेवी श्रीप्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव की शिष्या बनी और जैन धर्म पालती था ॥४६॥
हरियव्वरसिः पुत्री शान्तलाया जिनास्पदम् । कारयामास द्वादश्यां शताब्दयां विक्र मस्य सा ॥४७॥ भूमिदानं चकारापि तस्य निर्वाह हेतवे । मणिमाणिक्यसम्पन्न-शिखरं सुमनोहरम् ॥४८॥
शान्तलादेवी की पुत्री हरियव्वरसी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी में एक जिनालय बनवाया, जिसका शिखर मणि-माणिक्य से सम्पन्न और अति मनोहर था । उसने मन्दिर के निर्वाह के लिए भूमिदान भी किया था ॥४७-४८।।
विष्णुचन्द्रनरेशस्याग्रजजाया जयक्वणिः । नित्यं जिनेन्द्र देवार्चा कुर्वती समभादियम् ॥४९॥ विष्णुचन्द्र नरेश के बड़े भाई की स्त्री जयक्वणि जैन धर्म पालती थी और नित्य जिनेन्द्रदेव की पूजन करती थी ॥४९॥
सेनापतिर्गङ्गराजश्चास्य लक्ष्मीमतिः प्रिया जिनपादाब्जसेवायामेवासून विससर्ज तान्
॥५०॥ सेनापति गङ्गराज और उसकी पत्नी लक्ष्मीमती ये दोनों ही जैन धर्म के धारक थे और उन्होंने जिन भगवान् के चरण-कमलों की सेवा करते हुए ही अपने प्राणों का विसर्जन किया था ॥५०॥
चौहानवंशभृत्कीर्ति-पालनाममहीपते: देवी महीबलाख्याना वभूव जिनधर्मिणी ॥५१॥
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