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दिक्कु मारीगणस्याग्रे गच्छतो हस्तम्पुटे । यात्रायाः समये रेजुर्वसुमङ्गलसम्पदः ॥१२॥
भगवान् के विहार-समय आगे आगे चलने वाली दिक्कुमारी देवियों के हस्त-कमलों में अष्ट मंगल द्रव्य परम शोभा को प्राप्त होते थे ॥१२॥
दिशि यस्यामनुगमः सम्भाव्योऽभूजिनेशिनः । तत्रैव धर्मचक्राख्यो वर्त्म . वर्तयति स्म सः ॥१३॥
वीर जिनेश का विहार जिस दिशा में संभव होता था, उसी दिशा में धर्मचक्र आगे आगे अपना मार्ग बनाता चलता था ॥१३॥
चचाल यामिलामेषोऽलङ्कुर्वन् पादचारतः । रोमाणीव पयोजानि धारयन्तीह सा बभौ ॥१४॥
ये वीर भगवान् अपने पाद-संचार से जिस पृथ्वी को अलंकृत करते हुए चलते थे, वहां पर वह रोमाञ्च के समान कमलों को धारण करती हुई शोभित होती थी ॥१४॥
एवं पर्यटतोऽमुष्य देशं देशं जिनेशिनः । शिष्यतां जगह भूपा बहवश्चेतरे जनाः ॥१५॥
इस प्रकार प्राणि-मात्र को उनके कर्त्तव्य-पथ का उपदेश करते हुए देश-देश में विहार करने वाली वीर जिनेश का अनेकों राजा लोगों ने एवं अन्य मनुष्यों ने शिष्यपना स्वीकार किया ॥१५॥
राजगृहाधिराजो यः श्रेणिको नाम भूपतिः । लोक प्रख्यातिमायातो बभूव श्रोतृषूत्तमः ॥१६॥ बिहार प्रान्त के राजगृह नगर का अधिराज श्रेणिक नाम का राजा भगवान् का शिष्य बनकर और श्रोताओं में अग्रणी होकर संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ॥१६॥
जाता गौतमसंकाशाः सुधर्माद्या दशापरे । वीरस्य वाचमुद्धर्तुं क्षमा नानर्द्धिसंयुताः ॥१७।।
वीर भगवान् की वाणी का उद्धार करने में समर्थ एवं नाना ऋद्धियों से संयुक्त गौतम-तुल्य सुधर्मा आदि दश गणधर और भी हुए ॥१७।।
चम्पाया भूमिपालोऽपि नामतो दधिवाहनः । पद्मावती प्रिया तस्य वीरमेतौ तु जम्पती ॥१८॥
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