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पशूनां पक्षिणां यद्वदुल्कादीनां शकुनिः पन्निशम्यै तदर्थ यत्येष
च शब्दनम् 1 ताद्दशम्
॥६॥
जिस प्रकार एक शकुन शास्त्र का वेत्ता पुरुष पशु, पक्षी और बिजली आदि के शब्द को सुनकर उनके यथार्थ रहस्य को जानता है, हर एक मनुष्य नहीं । उसी प्रकार भगवान् की वाणी के यथार्थ रहस्य को गौतम गणधर ही जान पाते थे, हर एक मनुष्य नहीं ॥६॥
वाणीं द्वादशाभागेषु भक्तिमान् स स विभक्तवान्
सम्बभूवुश्चर्तुदश
अन्तिमस्यान्तरध्यायाः
11911
उस महान् भक्त गौतम ने भगवान् की वाणी को सुनकर आचारांग आदि बारह अंगों (भागों) में विभक्त किया । उसमें के बारहवें अंग के पांच भाग किये। उसमें से पूर्वगत के चौदह भेद किये ||७||
वाक्
नानादेशनिवासिनाम्
शुश्रूषूणामनेका अनक्षरायितं
वाचा
सार्वस्यातो
जिनेशिनः
11211
नाना देशों के निवासी श्रोता जनों की भाषा अनेक प्रकार की थी । (यदि भगवान् किसी एक देश की बोली में उपदेश देते, तो उससे सब का कल्याण नहीं हो सकता था ।) अतएव सर्व के हितैषी जिनेन्द्रदेव की वाणी अनक्षर रूप से प्रकट हुई । (जिससे कि सभी देशवासी लोग उसे अपनी अपनी बोली मे समझ लेवें, यह भगवान् का अतिशय था ) ||८||
पतितोद्धारक स्यास्य सर्वस्य
प्रेम्णा पपुस्तिर्यञ्चोऽपि
वीरोक्त मनुवदति दूरतरं
गणेशे निन्युर्ना मतो
विश्वहे तवे मागधा:
दूराद्
सुरा :
11811
वीर भगवान् के द्वारा कथित तत्त्व को विश्व कल्याण के लिए गणधर अनुवाद करते जाते थे और मागध जाति के देवं उस योजन व्यापिनी वाणी को दूरवर्ती स्थान तक फैला देते थे ॥ ९ ॥
किमु
मानवाः
I
भिथो
जातिविरोधिनः
।।१०।।
पतितों के उद्धारक और सर्व के हितकारक वीर प्रभु की वाणी को मनुष्यों ने ही क्या, परस्पर जाति-विरोधी तिर्यंचों तक ने भी प्रेम से पान किया, अर्थात् सुना ॥१०॥
पुण्यं
1
तत्राभूद्रस्य पर्यटः महात्मनः
वारिवाहस्येव
।। ११ ।।
जिस-जिस देश के निवासी जनों का जैसा पुण्य था, उसके अनुसार इच्छा-रहित विहार करने वाले महात्मा महावीर का विहार मेघ के समान उस देश में हुआ ॥११॥
यद्देशवासिनां निरीहचारिणो
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