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अथ पञ्चदशः सर्गः
गर्जनं वारिदस्येव दुन्दुभेरिव गुजनम् ।
जगदानन्दनं जीयाद्रणनं परमेष्ठिनः ॥१॥ मेघ की गर्जना के समान, अथवा दुन्दुभि की ध्वनि के समान गूंजने वाली और संसार के प्राणियों को आनन्द देने वाली ऐसी परमेष्ठी श्री वर्धमान स्वामी की वाणी जयवन्ती रहे ।।१।।
वीणायाः स्वरसम्पत्तिं सन्निशम्यापि मानवः । गायक एव जानाति रागोऽत्रायं भवेदिति ॥२॥
वीणा की स्वर-सम्पत्ति. को अर्थात् उसमें गाये जाने वाले गीत के राग को सुनकर गान-रस का वेत्ता मानव ही जान सकता है कि इस समय इसमें अमुक राग प्रकट होगा । हर एक मनुष्य नहीं जान सकता ॥२॥
उदियाय जिनाधीशाद्योऽसौ दिव्यतमो ध्वनिः ।
विवेद गौतमो हीदमेतदीयं समर्थनम् ॥३॥ ____ इसी प्रकार जिनाधीश वीर परभु से जो ध्वनि प्रकट हुई, उसके यथार्थ रहस्य को गौतम विद्वान् ही समझ सके , सर्व साधारण जन नहीं समझ सके ॥३॥
स्वाकू तस्योत्तरं सर्व एवाभ्याप स्वभाषया । निःशेषं ध्वनिमीशस्य किन्तु जग्राह गौतमः ॥४॥
यद्यपि समवशरण में अवस्थित सभी जन अपने प्रश्न का उत्तर अपनी भाषा में ही प्राप्त कर लेते थे, किन्तु वीर प्रभु की पूर्ण दिव्य ध्वनि को गौतम गणधर ही ग्रहण कर पाते थे ।।४॥ .
पिबन्तीक्ष्वादयो वारि यथापात्रं पयोमुचः ।
अथ शेषमशेषन्तु वार्धावेव निधीयते ॥५॥
जैसे मेघ से बरसने वाले जल को इक्षु आदि वृक्ष अपनी पात्रता के अनुसार ग्रहण करते हैं, किन्तु शेष समस्त जल तो समुद्र में ही स्थान पाता है । इसी प्रकार प्रत्येक श्रोता अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान् की वाणी को ग्रहण करता था, परन्तु उसे पूर्ण रूप से हृदयङ्गम तो गौतम गणधर ही कर पाते थे ॥५॥
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