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________________ - इस वीरोदय रूप तीर्थ में स्नान करने के लिए जो भी आत्मलक्षी नर-नारी, पशु-पक्षी अथवा देवदानव आया, उसको उसमें योग्य समुचित ही अधिकार मिला और सभीजीवों में परस्पर प्रेम मय विचार प्रकट हुआ ॥५०॥ सिंहो गजेनाखुरथौतुके न वृकेण चाजो नकुलोऽहिजेन । स्म स्नेहमासाद्य वसन्ति तत्र चात्मीयभावेन परेण सत्रा ॥५१॥ उस समय उस समवशरण में सिंह गज के साथ, मूषक विडाल के साथ, बकरा भेड़िये के साथ, नौला सांप के साथ वैर भूल करके परस्पर स्नेह को प्राप्त होकर अपने विरोधी के साथ आत्मीय भाव से बैठ रहे थे ॥५१॥ | दिवा-निशोर्यत्र न जातु भेदः कस्मै मनुष्याय न कोऽपि खेदः । बभूव सर्वर्तुसमागमोऽपि शीतातपादि-प्रतिवादलोपी ॥५२॥ उस समवशरण में दिन-रात्रि का भेद नहीं था, न कभी किसी मनुष्य या पशु के लिए किसी प्रकार का कोई खेद था । वहां सर्दी गर्मी आदि को दूर करने वाला सर्व ऋतुओं का भी समागम हुआ ॥५२॥ भावार्थ - उस समय सभी ऋतुओं के फल-फूल उत्पन्न हो गये और वसन्त जैसा सुहावना समय हो गया । किन्तु न वहां पर गीष्म ऋतु जैसी प्रंचड गर्मी थी, न शीतकाल जैसी उग्र सर्दी और न वर्षाकाल जैसी धनघोर वर्षा । सभी प्रकार का वातावरण परम शांत और आनन्द-दायक था । समवशरणमेतन्नामतो विश्रुताऽऽसी जिनपतिपदपूता संसदेषा शुभाशीः । जनि-मरणजदुःखाइखितो जीवराशि रिह समुपगतः सन् सम्भवेदाशु काशीः ॥५३॥ श्री जिनपति वीर प्रभु के चरण कमलों से पवित्र हुई यह शुभाशयवाली संसद (सभा) संसार में 'समवशरण' इस नाम से प्रसिद्ध हुई जिसमें कि जन्म-मरण-जनित दःख से दखित जीव-राशि आ-आकर शीघ्र काशी बन रही थी । क अर्थात् आत्मा की आशा वाली आत्म-स्वरूप प्राप्त करने की अभिलाषिणी हो रही थी ॥५३॥ श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्वयं । वाणी-भूषण-वर्णिनं घतवरी देवी च यं धीचयम् । तत्प्रोक्ते गणिनां विवर्णनमभूच्छीवीरनाथप्रभोः सर्गेऽस्मिन् खलु मार्गणोचितमितौ संपश्य तद् भव्य भोः ॥१४॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणीभूषण बाल-ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा रचे गये इस वीरोदय काव्य में गणधरों का वर्णन करने वाला चौदहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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