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________________ | 1412 जिस प्रकार पारस पाषाण के योग से लोहा शीघ्र सोना बन जाता है और जैसे पारा के योग धातु शीघ्र रोग नाशक रसायन बन जाती हैं। ठीक उसी प्रकार भगवान् वीर प्रभु के उपर्युक्त विवेचन से श्री गौतम इन्द्रभूति का चित्त भी पाप से रहित निर्दोष हो गया ॥ ४४ ॥ अन्येऽग्रिभूतिप्रमुखाश्च तस्य तुल्यत्वमेवानुबभुः समस्य । निम्बादयश्चन्दनतां लभन्ते श्रीचन्दनद्रोः प्रभवन्तु अन्ते ॥ ४५ ॥ उनके साथ के अन्य अग्निभूति आदिक दशों विद्वान् भी इन्द्रभूति के समान ही तत्त्व के यथार्थ रहस्य का अनुभव कर आनन्दित हुए, सो ठीक ही है । श्रीचन्दनवृक्ष के समीप में अवस्थित नीम आदिक भी चन्दनपने को प्राप्त होते हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ॥ ४५ ॥ वीरस्य पञ्चायुतबुद्धिमत्सु सकृत्प्रभावः समभून्महत्सु । वृत्तं तदेतत्प्रससार लोकप्रान्तेषु शीघ्रं प्रमुदामथौकः ॥४६॥ इन्द्रभूति आदि ग्यारहों विद्वानों का जो पांच हजार के लगभग शिष्य परिवार था, उन सबमें भी भगवान् महावीर के वचनों का महा प्रभाव पड़ा, और उन सबके हृदय भी एकदम पलट गये । यह हर्ष - वर्धक समाचार संसार के सर्व प्रान्तों में शीघ्र फैल गया ॥ ४६ ॥ समागमः क्षत्रियविप्रबुद्धयोर भूदपूर्वः परिरब्धशुद्धयोः । गाङ्गस्य वै यामुनतः प्रयोग इवाऽऽसकौ स्पष्टतयोपयोगः ॥४७॥ परम शुद्धि को प्राप्त यह क्षत्रिय बुद्धि महावीर और विप्र-बुद्धि इन्द्रभूति का अभूतपूर्व समागम हुआ, जैसे कि प्रयाग में गंगाजल का यमुना जल से संगम तीर्थरूप से परिणत हो गया । और आज तक पृथ्वी - मंडल पर उसका स्पष्ट रूप से उपयोग हो रहा है ॥४७॥ निशम्य सम्यङ् महिमानमस्याऽऽयाता तनूभृत्ततिरक्षिशस्या । यस्यां द्विजो बाहुज एव नासी द्वैश्योऽपि वा शिल्पिजनः शुभाशी ॥ ४८ ॥ वीर प्रभु की ऐसी महिमा को सुनकर उनके दर्शनार्थ और धर्म श्रवणार्थ लोगों की दर्शनीय पंक्तियों का आना प्रारम्भ हो गया, धर्म जिसमें केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ही नहीं थे, अपितु वैश्य भी और शुभ आशा रखने वाले शिल्पिजन ( शूद्र) भी थे ॥४८॥ यो वाऽन्तरङ्गे निजकल्मषस्य प्रक्षालनायानुभवत्समस्य । आयात एषोऽपि जन: किलेतः वीरोदयं तीर्थमपूर्वमेतत् ॥४९॥ जिस व्यक्ति ने भी सुना और भी व्यक्ति अन्तरंग के अपने पाप को धोने का अनुभव करता था, सभी जन आये और इस प्रकार संसार में यह 'वीरोदय' रूप अपूर्व ही तीर्थ प्रकट हुआ ॥ ४९ ॥ वे नरश्च नारी च पशुश्च पक्षी देवोऽथवा दानव आत्मलक्षी । तस्यैव तस्मिन्नुचितोऽधिकारः परस्परप्रेममयो विचारः Jain Education International For Private & Personal Use Only 114011 www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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