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नानाविधानेक विचित्रवस्तुसमर्थिते भूमितले समस्तु 1 न किञ्चनाऽऽदातुमिहेहमानः स ब्राह्मणो बुद्धिविधानिधानः ॥ ३९ ॥ जो नाना प्रकार की अनेक विचित्र वस्तुओं से भरे हुए इस भूतल पर कुछ भी नहीं ग्रहण करने की इच्छा रखता है, वही बुद्धि का निधान मानव ब्राह्मण है ॥३९॥
जलेsब्जिनीपत्रवदत्र भिन्नः इष्टेऽप्यनिष्टेऽपि न जातु खिन्नः ।
कूंर्मो यथा सम्वरितान्तरङ्गः सर्वत्र स ब्राह्मणसम्पदङ्गः ॥४०॥ जैसे जल में रहते हुए भी कमलिनी उससे भिन्न ( अलिप्त) रहती है, इसी प्रकार संसार में रहते हुए भी जो उससे अलिप्त रहे, इष्ट वियोग और अनिष्ट - संयोग भी कभी खेद - खिन्न न हो और कछुए के समान सर्वत्र अपने चित्त को सदा संवृत्त रखता हो, वही ब्राह्मण रूप सम्पदा का धारी है ||४०||
मनोवचोऽङ्गैः प्रकृतात्मशुद्धिः परत्र कुत्राभिरुचेर्न बुद्धिः ।
इत्थं किलामैथुनतामुपेतः स ब्राह्मणो ब्रह्मविदाश्रमेऽतः ॥ ४१ ॥ इस प्रकार जिसने मन, वचन और काय से स्वाभाविक आत्मशुद्धि प्राप्त कर ली है, अन्यत्र कहीं भी जिसकी न अभिरुचि है और न जिसकी बुद्धि है, एवं जो निश्चय से द्वैतभाव से रहित होकर अद्वैतभाव को प्राप्त हो गया है, वही पुरुष ब्रह्म - ज्ञानियों के आश्रम में ब्राह्मण माना गया है ॥४१॥
निशाचरत्वं न कदापि यायादेकाशनो वा दिवसेऽपि भायात् ।
मद्यं च मांसं मधुकं न भक्षेत् स ब्राह्मणो योऽङ्गभृतं सुरक्षेत् ॥४२॥ जो कभी भी निशाचरता को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् रात्रि में नहीं खाता, जो दिन में भी एकाशन करता है, मद्य, मांस, और मधु को कभी नहीं खाता है, एवं सदा प्राणियों की रक्षा करता है, वही ब्राह्मण है ॥४२॥
परित्यजेद्वारि अगालितन्तु
पिबेत्पुनस्तोषपयोऽपजन्तु
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कुर्यात्र कुत्रापि कदापि मन्तुं श्रीब्राह्मणोऽन्तः प्रभुभक्तितन्तुः ॥ ४३ ॥
जो अगालित जल को छोड़े और निर्जन्तुक एवं सन्तोषरूप जल को पीवे, कभी भी कहीं पर किसी भी प्रकार के अपराध को नहीं करे और अन्तरंग में प्रभु की भक्ति रूप तन्तु ( सूत्र ) को धारण करे । वही सच्चा ब्राह्मण है ||४३||
भावार्थ जो उपर्युक्त गुणों से रहित है, केवल ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है, और शरीर पर सूत का यज्ञोपवीत धारण करता है, वह ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता ।
स्वर्णमिवोपलेन
जवादयः
श्रीगौतमस्यान्तर भूदनेनः
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अनेन वीरप्रतिवेदनेन रसोऽगदः स्रागिव पारदेन 118811
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