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errrrrrrrrrrrrr 139rrrrrrrrrrrrrrrr उसी प्रकार मैंने भी आज तक यह अमूल्य मनुष्य जीवन व्यर्थ गवां दिया । अब इसकी क्या औषधि है? ऐसा गौतम के कहने पर सर्वजनों के द्वारा प्रशंसनीय प्रभु पुनः बोले- ॥३२-३३।।।
गतं न शोच्यं विदुषा समस्तु गन्तव्यमेवाऽऽश्रयणीयवस्तु ।
सम्भालयाऽऽत्मानमतो द्विजेश ! कोऽसीह ते कः खलु कार्यलेशः ॥३४॥ हे द्विजेश (ब्राह्मणोत्तम) ! विद्वान् को बीत गई बात का शोच नहीं करना चाहिए । अब तो गन्तव्य मार्ग पर ही चलना चाहिए और प्राप्त करने योग्य वस्तु को पाने का प्रयत्न करना चाहिए । अतएव अब तू अपनी आत्मा की सम्भाल कर और विचार कर कि तू कौन है और अब यहां पर तेरा क्या कर्तव्य है ॥३४॥
त्वं ब्राह्मणोऽसि स्वयमेव विद्धि व ब्राह्मणत्वस्य भवेत्प्रसिद्धिः ।
सत्यावधास्तेयविरामभावनिः सङ्ग ताभिः समुदेतु सा वः ॥३५॥ हे गौतम ! तुम ब्राह्मण कहलाते हो, किन्तु स्वयं अपने भीतर तो विचार. करो कि वह ब्राह्मणता की प्रसिद्धि कहां होती है। अरे. वह ब्राह्मणता तो सत्य, अहिंसा, अस्तेय. संगता से ही संभव है । ऐसी यह ब्राह्मणता तुम सबके प्रकट हो ॥३५॥
तपोधनश्चाक्षजयी विशोकः न कामकोपच्छलविस्मयौकः ।
शान्तेस्तथा संयमनस्य नेता स ब्राह्मणः स्यादिह शुद्धचेता ॥३६॥ ब्राह्मण तो वही हो सकता है जो तपोधन हो, इन्द्रिय-जयी हो, शोक-रहित हो । जो काम, क्रोध, छल और विस्मय आदि दोषों का घर न हो । तथा जो शांति और संयम का नेता हो और शुद्ध चित्त वाला हो । ऐसा पुरुष ही संसार में ब्राह्मण कहलाने के योग्य है ॥३६॥
पीडा ममान्यस्य तथेति जन्तु-मात्रस्य रक्षाकरणैकतन्तु ।
कृपान्वितं मानसमत्र यस्य स ब्राह्मणः सम्भवतान्नृशस्य ॥३७॥ हे पुरुषोत्तम ! जिसके यह विचार रहता हो कि जैसी पीड़ा मुझे होती है, वैसी ही अन्य को भी होती होगी । इस प्रकार विचार कर जो प्राणिमात्र की रक्षा करने में सदा सावधान रहता हो, जिसका हृदय सदा दया से युक्त रहता हो, वही इस संसार में ब्राह्मण होने के योग्य है ॥३७॥
सदाऽऽत्मनश्चिन्तनमेव वस्तु न जात्वसत्यस्मरणं समस्तु ।
परापवादादिषु मूकभावः स्याद् ब्राह्मणस्यैष किल स्वभावः ॥३८॥ जिसके सदा ही आत्मा का चिन्तन करना लक्ष्य हो, जो कदाचित् भी असत्य-संभाषण न करता हो, पर-निन्दा आदि में मौन भाव रखता हो । वही ब्राह्मण कहलाने के योग्य है, क्योंकि ब्राह्मण का यही स्वभाव (स्वरूप) है ॥३८॥
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