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________________ %3 ररररररररररररररररर131रररररररररररररररररर आत्म-साधना की सरणि (पद्धति) को प्रकट करने के लिए सूर्य है । इस दिगम्बरता के सिवाय वह अन्यत्र सम्भव नहीं है ॥३१॥ सत्यसन्देशसंज्ञप्त्यै प्रसादं कुरु भो जिन । इत्युक्त्वा पदयोरेष पपात परमेष्ठिनः ॥३२॥ (ऐसा मन में ऊहापोह करके) हे जिनेन्द्र ! सत्य सन्देश के ज्ञान कराने के लिए मेरे ऊपर प्रसाद करो (प्रसन्न होओ), ऐसा कहकर वह इन्द्रभूति गौतम वीर परमेष्ठी के चरणों में गिर पड़ा ॥३२॥ लब्ब्वेमं सभगं वीरोऽभिददौ वचनामृतम् । यथाऽऽषाढं समासाद्य मघवा वारि वर्षति ॥३३॥ इस सुभग इन्द्रभूति को पाकर वीर भगवान् ने उसे वचनामृत दिया । जैसे कि आषाढ़ मास को प्राप्त होकर इन्द्र जल बरसाता है ॥३३॥ यदाऽवतरितो मातुरुदरादयि शोभन । तदा त्वमपि जानासि समायातोऽस्यकिञ्चनः ॥३४॥ हे शोभन ! जब तुम माता के उदर से अवतरित हुए, तब तुम अकिञ्चन (नग्न) ही आये थे, यह बात तो तुम भी जानते हो ॥३४॥ गृहीतं वस्त्रमित्यादि यन्मायाप्रतिरूपक्म । मात्सर्या दिनिमित्तं च सर्वानर्थस्य साधकम् ॥३५॥ पुनः जन्म लेने के पश्चात् जो यह वस्त्र आदि ग्रहण किए हैं, वे तो माया के प्रतिरूप हैं, मात्सर्य, लोभ, मान आदि के निमित्त हैं और सर्व अनर्थों के साधक हैं ॥३५॥ अहिंसा वम सत्यस्य त्यागस्तस्याः परिस्थितिः । सत्यानुयायिना तस्मात्संग्रह्यस्त्याग एव हि ॥३६॥ सत्य तत्त्व का मार्ग तो अहिंसा ही है और त्याग उसकी परिस्थिति है अर्थात् परिपालक है । अतएव सत्यमार्ग पर चलने वाले के लिए त्यागभाव ही संग्राह्य है अर्थात् आश्रय करने योग्य है ॥३६।। त्यागोऽपि मनसा श्रेयान्न शरीरेण के वलम् । मूलोच्छे दं विना वृक्षः पुनर्भवितुमर्ह ति ॥३७॥ किसी वस्तु का मन से किया हुआ त्याग ही कल्याण-कारी होता है, केवल शरीर से किया गया त्याग कल्याण-कारी नहीं होता । क्योंकि मूल (जड़) के उच्छेद किये बिना ऊपर से काटा गया वृक्ष पुनः पल्लवित हो जाता है ॥३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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