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________________ हररररररररररररररर130/रररररररररररररर वेद-शास्त्र रूप समुद्र के पार को प्राप्त हुए मुझे तो इस प्रकार की विभूतियों की प्राप्ति आज तक भी संभव नहीं हुई है और उससे रहित अर्थात् वेद-बाह्य आचरण करने वाले वीर के आगे ये सर्व वैभव समुपस्थित है, अहो यह बड़ा आश्चर्य है ॥२६॥ चचाल द्दष्टुं तदतिप्रसङ्गमित्येवमाश्चर्यपरान्तरङ्गः । स प्राप देवस्य विमानभूमिं स्मयस्य चासीन्मतिमानभूमिः ॥२७॥ अतएव अधिक सोच-विचार कने से क्या लाभ है? (मैं चलकर स्वयं ही देखू कि क्या बात है ?)इस प्रकार विचार कर और आश्चर्य-परम्परा से व्याप्त है अन्तरंग जिसका, ऐसा वह इन्द्रभूति भगवान् वीर के समवशरण की ओर स्वयं ही चल पड़ा । जब वह वीर जिनेन्द्रदेव की विमान-भूमि (समवशरण) को प्राप्त हुआ तो अमानभूमि (अभिमान से रहित) होकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुआ ॥२७॥ रेभे पुनश्चिन्तयितुं स एष शब्देषु वेदस्य कुतः प्रवेशः । ज्ञानात्मनश्चात्मगतो विशेषः संलभ्यतामात्मनि संस्तुते सः ॥२८॥ और वह इस प्रकार विचारने लगा- इन बोले जाने वाले शब्दों में वेद (ज्ञान) का प्रवेश कैसे · संभव है ? ज्ञानरूपता तो आत्मगत विशेषता है और वह आत्मा की स्तुति करने पर ही पाई जा सकती है ॥२८॥ मयाऽम्बुधेमध्यमतीत्य तीर एवाद्ययावत्कलितः समीर:, कुतोऽस्तु मुक्ताफलभावरीतेरुतावकाशो मम सम्प्रतीतेः ॥२९॥ मैंने आज तक समुद्र में जाकर भी उसके तीर का ही समीर (पवन) खाया है । समुद्र में गोता लगाये बिना मेरी बुद्धि को भी जीवन की सफलता कैसे प्राप्त हो सकती है ? ॥२९॥ मुहस्त्वया सम्पठितः किलाऽऽत्मन् वेदेऽपि सर्वज्ञपरिस्तवस्तु । आराममापर्यटतो बहिस्तः किं सौमनस्याधिगतिः समस्तु ॥३०॥ हे आत्मन् ! तू ने अनेक बार वेद में भी सर्वज्ञ की स्तुति को पढ़ा, (किन्तु उसके यथार्थ रहस्य को नहीं जान सका) और उस ज्ञान के उद्यान के बाहिर ही बाहिर पर्यटन (परिभ्रमण) करता रहा। क्या बाहिर घूमते हुए भी उद्यान के सुन्दर सुमनों के समुदाय की प्राप्ति सम्भव है ? ॥३०॥ वातवसनता साधुत्वायेति वेदवाचः पूर्तिमथाये । नान्यत्रास्ति साधनासरणिप्रोद्युतयेऽयमेव भुवि तरणिः ॥३१॥ 'वात-वसनता अर्थात् दिगम्बरता ही साधुत्व के लिए कही गई है। इस वेद के वचन की पूर्ति को (यथार्थ ज्ञान को) मैं आज प्राप्त हुआ हूँ । यह दिगम्बरता ही संसार में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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