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वीर प्रभु के मुख का प्रभा-मण्डल इतना दीप्ति युक्त था कि वह दीप्ति कोटि सूर्यों के द्वारा भी संभव नहीं है। जिस प्रभा-मण्डल को देखने पर एक क्षण में लोग अपने-अपने जन्मान्तरों को देखने में समर्थ हो जाते थे ॥२१॥
भावार्थ - भगवान् का ऐसा अतिशय होता है कि उनके भामण्डल में प्रत्येक प्राणी को अपने तीन पूर्व के भव, तीन आगे के भव और एक वर्तमान का भव इस प्रकार सात भव दिखाई देते हैं ।
जगत्त्रयानन्दद्दशाममत्रं वदामि वीरस्य तदातपात्रम् ।
त्रैकालिकायाब्धितुजे सुसत्रं सतां जरामृत्युजनुर्विपत्त्रम् ॥२२॥ ___ वीर भगवान् के उपर जो छत्रत्रय अवस्थित थे, वे मानों जगत्त्रय के नेत्रों के आनन्द के पात्र ही थे, ऐसा मैं कहता हूँ वह छत्रत्रय त्रैकालिक (सदा) रहने वाले अब्धिसुत चन्द्र के लिए उत्तम कांति देनेवाला उत्तम सत्र (सदावर्त) ही था और वह सजन पुरुषों की जन्म, जरा और मरण रूप तीन विपत्तियों से त्राण (रक्षा) करने वाला था ॥२२॥
मोह प्रभावप्रसर प्रवर्जं श्रीदुन्दुभिर्यं ध्वनिमुत्ससर्ज । समस्तभूव्यापिविधिं समर्जन्नानन्दवाराशिरिवाघवर्जः ॥२३॥ उस समवशरण में देव-दुन्दुभि, मोहकर्म के प्रभाव के विस्तार को निवारण करने वाली, समस्त भू-व्यापी आनन्द विधि को करने वाली, पाप-रहित निर्दोष आनन्दरूप समुद्र की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि को कर रहे थे ॥२३।।
वाचां रुचा मेघमधिक्षिपन्तं पर्याश्रयामो जगदेकसन्तम् ।
अखण्डरूपेण जगज्जनेभ्योऽमृतं समन्तादपि वर्षयन्तम् ॥२४॥ उस समवशरण में भगवान् की दिव्य ध्वनि अखण्ड रूप से जगत् के जीवों को पीने के लिए सर्व ओर से अमृत रूप जल को वर्षाती हुई और मेघ की ध्वनि का तिरस्कार करती हुई प्रकट हो रही थी ॥२४॥
इत्येवमेतस्य सतीं विभूतिं स वेद-वेदाङ्ग विदिन्द्रभूतिः । जनैर्निशम्यास्वनिते निजीये प्रपूरयामास विचारहू तिम् ॥२५॥ इस प्रकार चारों ओर फैली हुई वीर भगवान् की इस विभूति को लोगों से सुनकर वेद-वेदाङ्ग का वेत्ता वह इन्द्रभूति ब्राह्मण अपने चित्त में इस प्रकार के विचार प्रवाह को पूरता हुआ विचारने लगा ॥२५॥
वेदाम्बुधेः पारमिताय मह्यं न सम्भवोऽद्यावधि जातु येषाम् । तदुज्झितस्याग्रपदं त एव भावा भवेयुः स्मयसूतिरेषा ॥२६॥
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