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ततः पुनर्द्वादश कोष्ठकानि जिनेन्द्रदेवं परितः शुभानि । स्म भान्ति यद्वद्रविमाश्रितानि मेषादिलग्नानि भवन्ति तानि ॥१६॥
पुन: तीसरे कोट के आगे जिनेन्द्र देव को घेर कर सर्व ओर उत्तम बारह कोठे सुशोभित हैं। (जिनमें चतुर्निकाय के देव, उनकी देवियां, मुनि, आर्यिका वा श्राविका, मनुष्य और पशु बैठकर भगवान् का धर्मोपदेश सुनते हैं ।) ये भगवान् को घेर कर अवस्थित बारह कोठे ऐसे शोभित होते हैं, जैसे कि सूर्य को आश्रय करके चारों ओर अवस्थित मीन - मेष आदि लग्न राशियां शोभित होती हैं ॥१६॥
मध्ये सभं गन्धकुटीमुपेतः समुत्थितः पीठतलात्तथेतः 1 बभौ विभुर्द्दष्टमिदं विधानं समस्तमुच्छिष्टमिवोज्जिहानः ॥१७॥
इस समवशरण-सभा के मध्य में गन्ध कुटी को प्राप्त और सिंहासन के तलभाग से ऊपर अन्तरिक्ष अवस्थित भगवान् इस समस्त आयोजन को (समवशरण की रचना विधान को) उच्छिष्ट के समान छोड़ते हुए से शोभायमान हो रहे थे ॥१७॥
नाम्ना स्वकीयेन बभूव योग्यस्तत्पृष्ठोऽशोकतरुर्मनोज्ञः । यो द्दष्टमात्रेण हरज्ञ्जनानां शोकप्रबन्धं सुमुदो विधानात् ॥१८॥
भगवान् के पीठ पीछे अपने नाम से योग्य अर्थात् अपने नाम को सार्थक करने वाला मनोज्ञ अशोक वृक्ष था, जो कि दर्शन मात्र से ही सर्व जनों के शोक-समूह को हरता हुआ, तथा हर्ष का विधान करता हुआ शोभित हो रहा था ॥१८॥
पुष्पाणि भूयो ववृषुर्नभस्तः नाकाशपुष्पं भवतीत्यशस्तः । जनै प्रवादो न्यक थीत्यनेन स्याद्वादविद्याधिपते रसेण ॥१९॥
स्याद्वाद विद्या के अधिपति श्री वीर भगवान् के पुण्योदय से उस समवशरण में आकाश से पुष्प बरस रहे थे । वे मानों यह प्रकट कर रहे थे कि लोगों ने हमारा जो यह अपवाद फैला रखा है कि आकाश में फूल नहीं होते, वह झूठ है ॥१९॥
गङ्गातरङ्गायितसत्वराणि यक्षैर्विधूतानि तु चामराणि । मुक्तिश्रियोऽपाङ्ग निभानि पेतुर्वीरप्रभोः पार्श्ववरद्वये तु ॥ २० ॥
उस समय वीर प्रभु के दोनों पार्श्व भागों में गंगा की तरंगों के समान लम्बे और यक्षों के द्वारा ढोरे जाने वाले चामर ( चंवरों के समूह ) ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों मुक्ति-लक्ष्मी के कटाक्ष ही हों ॥२०॥
प्रभोः प्रभामण्डलमत्युदात्तं न कोटिसूर्यैर्यदिहाभ्युपात्तम् । यदीक्षणे सम्प्रभवः क्षणेन स्मो नाम जन्मान्तरलक्षणेन ॥ २१ ॥
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