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________________ 122 अहो जिनोऽयं जितवान् मतल्लं केनाप्यजेयं भुवि मोहमल्लम् । नवाङ् कु राङ्कोदितरोमभार मितीव हर्षादवनिर्ब भार ॥४५॥ अहो, इन जिनदेव ने संसार में किसी से भी नहीं जीता जानेवाला महा बलशाली मोहरूपी महामल्ल जीत लिया, इस प्रकार के हर्ष को प्राप्त हो करके ही मानों सारी पृथ्वी ने नवीन अंकुरों के प्रकट होने से रोमाञ्चपने को धारण कर लिया ॥ ४५ ॥ भावार्थं सारी पृथ्वी हर्ष से रोमाञ्चित होकर हरी भरी हो गई । - समासजन् स्नातकतां स वीरः विज्ञाननीरैर्विलसच्छरीरः । रजस्वलां न स्पृशति स्म भूमिमेकान्ततो ब्रह्मपदैक भूमिः ॥४६॥ विज्ञान रूप नीर से जिनके शरीर ने भली भांति स्नान कर लिया, अतएव स्नातकता को प्राप्त करने वाले, तथा एकान्ततः ब्रह्मपद के अद्वितीय स्थान अर्थात् बाल- ब्रह्मचारी ऐसे उन वीर भगवान् ने रजस्वला स्त्री के समान भूमि का स्पर्श नहीं किया अर्थात् भूमि पर विहार करना छोड़कर अन्तरिक्ष - गामी हो गये ॥४६॥ भावार्थ जैसे कोई ब्रह्मचारी और फिर स्नान करके रजस्वला स्त्री का स्पर्श नहीं करता, वैसे ही बाल- ब्रह्मचारी और स्नातक पद को प्राप्त करने वाले भगवान् ने रजस्वला अर्थात् धूलिवाली पृथ्वी का भी स्पर्श करना छोड़ दिया। अब वे गगन-बिहारी हो गये । - उपद्रुतः स्यात्स्वयमित्ययुक्तिर्यस्य प्रभावान्निरुपद्रवा पूः । तदा विपाकोचितशस्यतुल्या नखाश्चकेशाश्च न वृद्धिमापुः ॥४७॥ जिनके प्रभाव से यह सारी पृथ्वी ही उपद्रवों से रहित हो जाती है, वह स्वयं उपद्रव से पीड़ित हों, यह बात अयुक्त है, इसीलिए केवल ज्ञान के प्राप्त होने पर भगवान् भी (चेतन देव, मनुष्य, पशुकृत एवं आकस्मिक अचेतन - कृत सर्व प्रकार के) उपद्रवों से रहित हो गये । तथा परिपाक को प्राप्त हुई धान्य के समान भगवान् के नख और केश भी वृद्धि को प्राप्त नहीं हुए ||४७|| भावार्थ:- केवल ज्ञान के प्राप्त होने पर जगत् उपद्रव - रहित हो जाता है और भगवान् के नख और केश नहीं बढ़ते हैं । बभूव कस्यैव बलेन युक्तश्च नाऽधुनासौ कवले नियुक्तः । सुरक्षणोऽसावसुरक्षणोऽपि जनैरमानीति वधैक लोपी ॥ ४८ ॥ भगवान् उस समय कबल अर्थात् आत्मा के बल से तो युक्त हुए, किन्तु कवल अर्थात् अन्न के ग्रास से संयुक्त नहीं हुए, अर्थात् केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भगवान् कवलाहार से रहित हो गये, फिर भी वे निर्बल नहीं हुए, प्रत्युत आत्मिक अनन्त बल से युक्त हो गये । वे भगवान् सुरक्षण होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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