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________________ ररररररररररररररर|12|ररररररररररररररररर प्रात:काल जैसे सूर्य प्रसन्न होकर विचार मात्र से ही कुहरे को दूर कर देता है, उसी प्रकार उस समय प्रभावान् शरीर वाले वीर भगवान् ने अपने आत्म-स्थित दैव (कर्मरूप) मल को दूर कर दिया ४१।। भावार्थ - इस श्लोक में पठित सर्व विशेषण समान रूप से सूर्य और भगवान् दोनों के लिए घटित होते हैं, क्योंकि जैसे सूर्य प्रभावान् शरीर का धारक है, वैसे ही भगवान् भी प्रभा वाले भामण्डल से युक्त हैं । जैसे सूर्य तपोभृत् अर्थात् उष्णता रूप ताप को धारण करता है, वैसे ही भगवान् भी तप के धारक हैं । जैसे सूर्य विचार अर्थात् अपने संचार से अन्धकार को दूर करता है, उसी प्रकार भगवान् ने भी अपने विचार रूप ध्यान से अज्ञान रूप अन्धकार को दूर किया है । हां भगवान् में इतनी विशेषता है कि सूर्य तो बाहिरी तमरूप मल को दूर करता है, पर भगवान् ने दैव या अद्दष्ट नाम से कहे जाने वाले अन्तरंग कर्म रूप मल को दूर किया, जिसे कि दूर करने में सूर्य समर्थ नहीं है । अनित्यतैवास्ति न वस्तुभूताऽसौ नित्यताऽप्यस्ति यतः सुपूता । इतीव वक्तुं जगते जिनस्य द्दङ् निर्निमेषत्वमगात्समस्य ॥४२॥ केवल ज्ञान प्राप्त करते ही भगवान् के नेत्र निर्निमेष हो गये अर्थात् अभी तक जो नेत्रों की पलकें खुलती और बन्द होती थी । उसका होना बन्द हो गया । इसका कारण बतलाते हुए कवि कहते हैंपदार्थों में केवल अनित्यता ही वस्तुभूत धर्म नहीं है, किन्तु नित्यता भी वास्तविक धर्म है । यह बात जगत् के कहने के लिए ही मानों वीर जिन के नेत्र निर्निमेषपने को प्राप्त हो गये ॥४२॥ ____ भावार्थ - आंखों का बार-बार खुलना और बन्द होना वस्तु की अनित्यता का सूचक है तो निर्निमेषता नित्यता को प्रकट करती है । इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों धर्म रहते हैं । धर्मार्थकामामृतसम्भिदस्तान् प्रवक्तुमर्थान् पुरुषस्य शस्तान् । बभार वीरश्चतुराननत्वं हितं प्रकर्तुं प्रति सर्वसत्त्वम् ॥४३॥ धर्म, अर्थ, काम और अमृत (मोक्ष) रूप पुरुष के हितकारक चार प्रशस्त पुरुषार्थों को सर्व प्राणियों से कहने के लिए ही मानों वीर भगवान् ने चतुर्मुखता को धारण कर लिया ॥४३॥ भावार्थ - केवल ज्ञान होते ही भगवान् के चार मुख दीखने लगते हैं, उसको लक्ष्य में रखकर कवि ने उनके वैसा होने का कारण बतलाया है । रूपं प्रभोरप्रतिमं वदन्ति ये येऽवनौ विज्ञवराश्च सन्ति । कुतः पुनमें प्रतिमेति कृत्वा निश्छायतामाप वपुर्हि तत्त्वात् ॥४४॥ इस अवनी (पृथ्वी) पर जो-जो श्रेष्ठ ज्ञानी लोग हैं, वे वीर प्रभु के शरीर के रूप को अनुपम कहते हैं, फिर मेरा अनुकरण करने वाली प्रतिमा (छाया) भी क्यों हो ? यह सोचकर ही मानों भगवान् का शरीर तत्त्वतः छाया-रहितपने को प्राप्त हुआ, अर्थात् छाया से रहित हो गया ॥४४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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