________________
୧୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯120୧୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୧
न वेदनाऽङ्गस्य च चेतनस्तु नासामहो गोचरचारि वस्तु । तथापि संसारिजनो न जाने किमस्ति लग्नोऽर्त्तिकथाविधाने ॥३६॥
शीत-उष्णादि के वेदना सहन करते हुए भगवान् विचार करते थे कि शरीर के तो जानने की शक्ति (चेतना) नहीं है और यह चेतन आत्मा इन शीत-उष्णादि की वेदनाओं का विषयभूत होने वाला पदार्थ नहीं है । तो भी न जाने, क्यों यह संसारी जीव पीड़ा की कथा कहने में संलग्न हो रहा है ॥३६॥
मासं चतुर्मासमथायनं वा विनाऽदनेनाऽऽत्मपथावलम्बात् ।
प्रसन्नभावेन किलैकतानः स्वस्मिन्नभूदेष सुधानिधानः ॥३७॥ . अमृत के निधान वे वीर भगवान् आत्म-पथ का आश्रय लेकर एक मास चार मास और छह मास तक भोजन के बिना ही प्रसन्न चित्त रहकर अपने आपमें मग्न होकर रहे थे ॥३७॥ .
गत्वा पृथक्त्वस्य वितर्कमारादेकत्वमासाद्य गुणाधिकारात् । निरस्य घातिप्रकृतीरघातिवर्ती व्यभाछीसुकृ तैकतातिः ॥३८॥
जब छद्मस्थकाल का अन्तिम समय आया, तब भगवान् क्षपक श्रेणी पर चढ़े और आठवें गुण स्थान में पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान को प्राप्त होकर घातिया कर्मों की सर्व प्रकृतियों का क्षय करके अघ (पाप) से परे होते हुए, अथवा अघाति कर्मों के साथ रहते हुए अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी के सौभाग्यपरम्परा को धारण कर शोभित हुए ॥३८॥
मनोरथारुढ तयाऽथवेतः के नान्वितः स्नातकतामुपेतः । स्वयम्वरीभूततया रराज मुक्तिश्रियः श्रीजिनदेवराजः ॥३९॥
उस समय वीर प्रभु मनोरथ पर आरुढ़ होकर के अर्थात् आत्मा से अथवा जल से समन्वित होकर स्नातक दशा को प्राप्त हुए, मानों मुक्ति श्री के स्वयं वरण करने के लिए ही वे श्री जिनदेवराज वरराजा से शोभित हो रहे थे ॥३९॥
वैशाखशुक्लाऽभ्रविधूदितायां वीरस्तिथौ के वलमित्यथायात् । स्वयं समस्तं जगदप्यपायादुद्धत्य धर्तुं सुखसम्पदायाम् ॥४०.
यह समस्त जगत् जो उस समय पापों में संलग्न था, उसको पाप से दूर करने के लिए, तथा सुख-सम्पदा में लगाने के लिए ही मानों श्री वीर भगवान् ने वैशाख शुक्ला दशमी तिथि में केवल ज्ञान को प्राप्त किया ॥४०॥
अपाहरत् प्राभवभृच्छरीर आत्मस्थितं दैवमलं च वीरः । विचारमात्रेण तपोभृदद्य पूषेव कल्ये कुहरं प्रसद्य ॥४१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org