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________________ CTTTTTTTTTTTTTTWT|123 CUCCuracao हुए भी असुरक्षण थे । यह विरोध है कि जो सुरों का क्षण (उत्सव-हर्ष) करने वाला हो, वह असुरों का हर्ष-वर्धक कैसे हो सकता है । इसका परिहार यह है कि वे देवों के हर्ष-वर्धक होते हुए भी असु-धारी प्राणी मात्र के भी पूर्ण रक्षक एवं हर्ष-वर्धक हुए । इसीलिए लोगों ने उन्हें वध (हिंसा) मात्र का लोप करने वाला पूर्ण अहिंसक माना ॥४८॥ प्रभोरभूत्सम्प्रति दिव्यबोधः विद्याऽवशिष्टा कथमस्त्वतोऽधः । कलाधरे तिष्ठति तारकाणां ततिः स्वतो व्योम्नि धृतप्रमाणा ॥ भगवान् को जब दिव्य बोध (केवल ज्ञान) प्राप्त हो गया है, तो फिर संसार की समस्त विद्याओं में से कोई भी विद्या अवशिष्ट कैसे रह सकती थी ? अर्थात् भगवान् सर्व विद्याओं के ज्ञाता या स्वामी हो गये । क्योंकि आकाश में कलाधर (चन्द्र) के रहते हुए ताराओं की पंक्ति तो स्वतः ही अपने परिवार के साथ उदित हो जाती है ॥४९॥ निष्कण्टकादर्शमयी धरा वा मन्दः सुगन्धः पवनः स्वभावात् । जयेति वागित्यभवन्नभस्त आनन्दपूर्णोऽभिविधिः समस्तः ॥ भगवान् को केवल ज्ञान प्राप्त होते ही यह सारी पृथ्वी कंटक रहित होकर दर्पण के समान स्वच्छ हो गई । स्वभाव से ही मन्द सुगन्ध पवन चलने लगा । आकाश में जय जयकार करने वाली ध्वनि होने लगी और इस प्रकार सभी वातावरण आनन्द से परिपूर्ण हो गया ॥५०॥ स्नाता इवाभुः ककुभः प्रसन्नास्तदेकवेलामृतवः प्रपन्नाः । गन्धोदकस्यातिशयात् प्रवृष्टिर्यतोऽभवनद्धर्षमयीव सृष्टिः ॥५१॥ सभी दिशाएं स्नान किये हुए के समान प्रसन्न हो गई । सर्व ऋतुएं भी एक साथ प्राप्त हुई । गन्धोदक की सातिशय वर्षा होने लगी और सारी सृष्टि हर्ष-मय हो गई ॥५१॥ ज्ञात्वेति शको धरणीमुपेतः स्ववैभवेनाथ समं सचेतः । निर्मापयामास सभास्थलं स यत्र प्रभुर्मुक्तिपथैकशंसः ॥५२॥ यह सब जानकर सुचेता इन्द्र भी अपने वैभव के साथ पृथ्वी पर आया और जहां पर मुक्तिमार्ग के अद्वितीय उपदेष्टा विराजमान थे, वहां पर उसने एक समवशरण नामक सभा-मण्डप का निर्माण किया ॥५२॥ सम्भोक्ता भगवानमेयमहिमासर्वज्ञचूड़ामणि - निर्माता तु शचीपतेः प्रतिनिधिः श्रीमान् कु बेरोऽग्रणीः । सन्दष्टाऽखिलभूभुवां समुदयो यस्या भवेत्संसदः पायाज्जातु रसस्थितिं मम रसाऽप्येषाऽऽशु तत्सम्पदः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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