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पतङ्गकं सम्मुखमीक्षमाणा करेण सोत्कण्ठमना द्रुतं तम् । उपात्तवत्यम्बुजलोचनाऽन्या प्रियस्य सन्देशमिवाऽऽपतन्तम् ।
अन्य कोई कमलनयनी स्त्री अपने सम्मुख आकर गिरे हुए पंतग को देखकर 'यह मेरे पति का भेजा हुआ सन्देश ही है' ऐसा समझ कर अति उत्कण्ठित मन होकर के उसे शीघ्र हाथ से उठा लेती है ॥२६॥
कृपावती पान्थनृपालनाय कृपीटमुष्णं तपसेत्यपायः । प्रपा त्रपातः किल सम्विभर्त्ति स्वमाननं स्विन्त्रदशानुवर्त्ति ॥२७॥
पथिक जनों के पालन के लिए बनाई गई दयामयी प्याऊ भी सूर्य से मेरा जल उष्ण हो गया है, अब उसके ठंडे होने का कोई उपाय नहीं है, यह देख करके ही मानों लज्जा से अपने मुख को प्रस्वेद - युक्त दशा का अनुवर्ती कर लेती है ॥२७॥
च
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वातोऽप्यथातोऽतनुमत्तनूनामभ्यङ्ग मभ्यङ्ग क चन्दनं मद्भक्षिसरंक्षणलक्षणं यद्विशोषयत्येवमिति प्रपञ्चः
॥२८॥
वर्तमान की वायु का भी क्या हाल है ? वह यह सोच कर कि इन युवतियों के शरीरों पर चन्दनलेप हो रहा है, वह मुझे खाने वाले सर्पों की रक्षा करने वाला है, ऐसा विचार करके ही मानों उनके शरीर पर लेप किये हुए चन्दन को शीघ्र सुखा देता है, यह बड़ा प्रपंच है ॥२८॥
भावार्थ सर्पों का एक नाम पवनाशन भी है, जिसका अर्थ होता है पवन को खाने वाला । कवि ने इसे ही ध्यान में रख कर चन्दन - लेप सुखाने की उत्प्रेक्षा की है ।
वेषः पुनश्चांकुरयत्यनङ्गं नितम्बिनीनां सकृदाप्लुतानाम् । कण्ठीकृ तामोदमयस्रजान्तु स्तनेषु राजार्ह परिप्लवानाम् ॥२९॥ जिन नितम्बिनियों ने अभी-अभी स्नान किया है, सुगन्धमयी पुष्प माला कण्ठ में धारण की है और स्तनों पर ताजा ही चन्दन लेप किया है, उनका वेष अवश्य ही पुरुषों के मन में अनंग को अंकुरित करता है, अर्थात् कुछ समय के लिए उन्हें आनन्द का देने वाला हो जाता है ॥२९॥
जलं
पुरस्ताद्यदभूतु कूपे तदङ्गनानामिह नाभिरूपे
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स्त्रोतो विमुच्य स्त्रवणं स्तनान्ताद् यूनामिदानीं सरसीति कान्ता ॥३०॥ . जो जल पहिले कुएं में था, वह इस ग्रीष्मकाल स्त्रियों के नाभि-रूप कूप में आ जाता है। और जो जल स्रोत ( झरने) पर्वतों से झरते थे, वे अब स्थान छोड़कर स्त्रियों के स्तनों के अग्रभाग में आ जाते हैं । इस समय सरोवरी तो सूख गई है, किन्तु कामी जनों के लिए तो सुन्दर स्त्री ही सरोवरी का काम करती है ॥३०॥
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