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भावार्थ जो दिन अभी तक शीत ऋतु में छोटे होते थे बड़ी तेजी से निकल जाते थे, वे ही अब गर्मी में इतने लम्बे या बड़े कैसे होने लगे ? इस बात पर ही कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है। पादैः खरैः पूर्णदिनं जगुर्विद्वर्या रवेर्निर्दलितेयमुर्वी । आशासिता सायमुपैति रोषात्करैर्बृहन्निश्वसितं विधोः सा ॥ २१ ॥
सारे दिन सूर्य के प्रखर पादों (किरणों वा पैरों) से सताई गई यह पृथ्वी सांयकाल के समय चन्द्र के करों (किरणों वा हस्तों) से अश्वासन पाकर रोष से ही मानों दीर्घ निःश्वास छोड़ने लगती है, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ॥ २१ ॥
सरोजिनीसौर भसारगन्धिर्मधौ
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आनन्दपदानुबन्धी
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रथ्या रजांसीह किरन् समीर उन्मत्तकल्पो भ्रमतीत्यधीरः ॥२२॥ वसन्त ऋतु में जो वायु सरोजिनी के सौरभ सार से सुगन्धित था, एवं सभी के आनन्द का उत्पादक था, वही वायु अब गलियों की धूलि को चारों ओर फेंकता हुआ उन्मत्त पुरुष के समान अधीर होकर भ्रमण कर रहा है ॥२२॥
नितान्तमुच्चै स्तनशैलमूलच्छायस्य किञ्चित्सवितानुकूलः ।
यः कोऽपि कान्तामुखमण्डलस्य स्मितामृतैः सिक्ततया प्रशस्यः ॥
इस ग्रीष्म ऋतु में, यदि सूर्य किसी के कुछ अनुकूल है तो उसी के है, जो कि स्त्रियों के अति उन्नत स्तनरूप शैल के मूल की छाया को प्राप्त है और कान्ता के मन्द हास्य रूप अमृत से सिंचित होने के प्रशंसनीय सौभाग्य वाला हैं ||२३ ॥
शिवद्विषः शासनवत्पतङ्गः प्रयाति यावद्गगनं सुचङ्गः 1
नतभ्रुवः श्रीकुचबन्धभङ्गः स्फीत्या स एवास्तु जये मृदङ्गः ॥२४॥
यह सुचंग (उत्तम) पतंग कामदेव के शासन-पत्र (हुक्म नामा) के समान वेग से जाता हुआ जब आकाश में पहुँच जाता है, उस समय प्रसन्नता से युवती जनों के कुचों का बंधन खुल जाता है, सो मानों यह काम की विजय में मृदंग ही बन रहा है ॥२४॥
पतङ्ग तन्त्रायितचित्तवृत्तिस्तदीययन्त्र भ्रमिसम्प्रवृत्तिः
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श्यामापि नामात्मजलालनस्य समेति सौख्यं सुगुणादरस्य ॥२५॥
जिस स्त्री के अभी तक सन्तान नहीं हुई है, ऐसी श्यामा वामा की चित्त वृत्ति जब पतंग उड़ाने में संलग्न होती है और जब वह डोरी से लिपटी हुई उसकी चर्खी को घुमाने में प्रवृत्त होती है, तब वह सुगुणों का आदर- भूत पुत्र लालन का सौख्य प्राप्त करती है, अर्थात् डोरी की चख को दोनों हाथों में लिए उसे घुमाते समय वह पुत्र खिलाने जैसा आनन्द पाती है ॥२५॥
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