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स्वयं जल भी ग्रीष्म से सन्तप्त होकर प्रस्वेद (पसीना) के मिष से युवती स्त्रियों के शीतल स्तनों के तीर का भले प्रकार आश्रय लेता है ॥१५॥
अभिद्रवच्चन्दनचर्चितान्तं कामोऽपि वामास्तनयोरूपान्तम् । आसाद्य सद्यस्त्रिजगद्विजेता निद्रायतेऽन्यस्य पुनः कथेता ॥१६॥
औरों की तो कथा ही क्या है, स्वयं सद्यः (शीघ्रता पूर्वक) त्रिजगद्-विजेता कामदेव भी चंदनरस से चर्चित नवोढाओं के स्तनों के मूल भाग को प्राप्त होकर निद्रा लेने लगता है ॥१६॥
छाया तु मा यात्विति पादलग्ना प्रियाऽध्वनीनस्य गतिश्च भग्ना । रविस्त्ववित्कर्कशपादपूर्णः क्वचित् स शेतेऽथ शुचेव तूर्णम् ॥१७॥ पथिक की गति रूप स्त्री तो नष्ट हो गई है और छाया रूप प्रिया 'अभी मत जाओ' ऐसा कहती हुई अपने पथिक पति के पैरों में पड़ जाती है, और इधर सूर्य निर्दयता-पूर्वक अपने कठोर पैर मारता है, अर्थात् अपनी तीक्ष्ण किरणों से सन्तप्त करता है । इस लिए सोच में पड़ करके ही मानों पथिक शीघ्र कहीं एकान्त में जाकर सो जाता है ॥ १७॥
द्विजिह्व चित्तोपममम्बुतप्तं ब्रह्माण्डकं भ्राष्ट्र पदेन शप्तम् ।
शैत्यस्य सत्त्वं रविणाऽत्र लुप्तं यत्किञ्चिदास्ते स्तनयोस्तु गुप्तम् ॥ गर्मी में जल तो पिशुन के चित्त के समान सदा सन्तप्त रहता है और यह सारा ब्रह्माण्ड भाड़ के समान अति उष्णता को प्राप्त हो जाता है । इस समय शीत की सत्ता को सूर्य ने बिलकुल लुप्त कर दिया है । यदि कहीं कुछ थोड़ा-सा शीत शेष है, तो वह स्त्रियों के स्तनों में छिपा हुआ है ॥१८॥
परिस्फुटनोटिपुटैर्विडिम्भैः प्राणैस्तरूणामिव कोटराणाम् । कोकू यनान्यङ्कगतैः कि यन्ते रवेर्मयूखैर्ध्वलितान्तराणाम् ॥१९॥ सूर्य की भंयकर किरणों से जल गया है भीतरी भाग जिनका, ऐसे वृक्षों के कोटरों में छिपकर बैठे हुए और जिनके चंचु-पुट खुले हुए हैं, ऐसे पक्षियों के बच्चे प्यास से पीड़ित होकर ऐसे आर्त्त शब्द कर रहे हैं मानों गर्मी से पीड़ित कोटर ही चिल्ला रहे हों ॥१९॥
प्रयात्यरातिश्च रविर्हि मस्य दरीषु विश्रम्य हिमालयस्य । नो चेत्क्षणक्षीणविचारवन्ति दिनानि दीर्घाणि कुतो भवन्ति ॥२०॥
औरों की तो बात ही क्या है, जो हिम का सहज वैरी है वह सूर्य भी हिमालय की गुफाओं में कुछ देर तक विश्राम करके आगे जाता है । यदि ऐसा न होता, तो क्षण-क्षीण विचार वाले दिन आज कल दीर्घ कैसे होते ॥२०॥
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