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सन्तापित: सँस्तपनस्य पादैः पथि व्रजन् पांशुभिरुत्कृदङ्गः तले मयूरस्य निषीदतीति श्वसन्मुहुर्जिह्मगतिर्भुजङ्ग : ॥११॥
सूर्य की प्रखर किरणों से सन्ताप को प्राप्त होता हुआ, मार्ग में चलते हुए उष्ण धूलि से अपने अंग को ऊंचा उठाता हुआ, बार-बार दीर्घ श्वास छोड़ता हुआ भुजंग कुंठित गति होकर छाया प्राप्त करने की इच्छा से मोर के तले जाकर बैठ जाता है ॥११॥
भावार्थ
गर्मी से संत्रस्त सर्प यह भूल जाता है कि मोर तो मेरा शत्रु है, केवल गर्मी से बचने का ही ध्यान रहने से वह उसी के नीचे जा बैठता है ।
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द्विजा वलभ्यामधुना लसन्ति नीडानि निष्पन्दतया श्रयन्ति । समेति निष्ठां सरसे विशाले शिखावलः सान्द्रनगालवाले ॥१२॥
गर्मी के मारे पक्षीगण भी छज्जों के नीचे जाकर और वहां के घोंसलों का निस्पन्द होकर आश्रय ले लेते हैं, अर्थात् उनमें जाकर शान्त हो चुप-चाप बैठ जाते हैं । और मयूरगण भी किसी वृक्ष की सघन सरस, विशाल आर्द्र क्यारी में जाकर आसन लगा के चुपचाप बैठ जाते हैं ॥१२॥
वाहद्विषन् स्वामवगाहमानश्छायामयं कर्दम इत्युदानः 1 विपद्यते धूलिभिरुणिकाभिरूढा व वा भ्रान्तिमतामुताऽभीः ॥१३॥ अश्वों से द्वेष रखने वाला भैंसा भी गर्मी से संतप्त होकर अपने ही अंग की छाया को, यह सघन कीचड़ है, ऐसा समझकर बैठ जाता है और उसमें लोट-पोट होने लगता है । किन्तु वहां की उष्ण धूलि से उल्टा विपत्ति को ही प्राप्त होता है । सो ठीक ही है भ्रान्ति वाले लोगों को निर्भयता कहां मिल सकती है ॥१३॥
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उशीर संशीर कुटीर मेके भूगर्भमन्ये शिशिरं विशन्ति ।
उपैति निद्रापि च पक्ष्मयुग्मच्छायां द्दशीत्येव विचारयन्ती ॥१४॥
गर्मी में कितने ही धनिक - जन तो उशीर (खस) से संश्रित कुटी में निवास करते हैं, कितने ही शीतल भूमि-गत गर्भालयों में प्रवेश करते हैं । ऐसा विचार करती हुई स्वयं निद्रा भी मनुष्यों की दोनों आंखों की वरौनी का आश्रय ले लेती है || १४ ||
श्रीतालवृन्तभ्रमणं यदायुः सर्वात्मना सेव्यत एव वायुः । आलम्बते स्वेदमिषेण नीरं सुशीतलं सम्यगुरोजतीरम् ॥१५॥ इस ग्रीष्म काल में वायु भी श्री ताल वृक्ष के वृन्त (डंठल ) के आश्रय को पाकर जीवित रहती है, इसलिए वह सर्वात्म रूप से उसकी सेवा अर्थात् ग्रीष्म काल में लोगों के द्वारा बराबर पंखे की हवा ली जाती है । तथा
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