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11वारररररररररररररररर इस समय यह पृथ्वी भी वियोगियों के चित्त-सद्दश सन्तप्त हो जाती है । सूर्य की छाया भी मानिनी वियोगिनी नायिका के समान कृशता को धारण कर लेती है ॥५॥
कोपाकुलस्येव मुखं नृपस्य को नाम पश्येद्रविबिम्बमद्य । पयः पिबत्येव मुहुर्मनुष्योऽधरं प्रियाया इव सम्प्रपद्य ॥६॥ इस समय कोप को प्राप्त हुए राजा के मुख के समान सूर्य के बिम्ब को तो भला देख ही कौन सकता है ? गर्मी के मारे कण्ठ सूख-सूख जाने से मानों मनुष्य बार-बार अपनी प्रिया को प्राप्त होकर उसके अधर के समान जल को पीता है ॥६॥
ज्वाला हि लोलाच्छलतो बहिस्तानिर्यात्यविच्छिन्नतयेति मानात् ।
जानामि जागर्त्ति किलान्तरले वैश्वानरः सम्प्रति मण्डलानाम् ॥७॥ इस ग्रीष्म ऋतु में कुत्तों के भीतर अग्नि प्रज्वलित हो रही है, इसीलिए मानों उनकी ज्वाला लपलपाती जीभ के बहाने अविच्छिन्न रूप से लगातार बार-बार बाहिर निकल रही है, ऐसा मैं अनुमान करता हूँ ।७।।
सहस्त्रधासंगुणितत्विडन्धौ वसुन्धरां' शासति पद्मबन्धौ ।
जड़ाशयानान्तु कु तो भवित्री सम्भावना साम्प्रतमात्तमैत्री ॥८॥ इस समय सहस्र गुणित किरणों को लेकर पद्मबन्धु (सूर्य के वसुन्धरा का शासन करने पर जडाशयों (मूर्ख जनों और जलाशयों) की तो बने रहने की सम्भावना ही कैसे हो सकती है । अर्थात् गर्मी में सरोवर सूख जाते हैं ॥८॥
त्यक्त्वा पयोजानि लताः श्रयन्ते मधुव्रता वारिणि तप्त एते ।
छायासु एणः खलु यत्र जिह्वानिलीढकान्तामुख एष शेते ॥९॥ इस समय सरोवरों का जल अत्यन्त तप जाने पर भौरे कमलों को छोड़ कर लताओं का आश्रय लेते हैं और हिरण भी ठण्डी सघन छाया में बैठकर अपनी जिह्वा से प्रिया (हिरणी) का मुख चाटता हुआ विश्राम ले रहा है ॥९॥
मार्तण्डतेजः परितः प्रचण्डं मुखे समादाय मृणालखण्डम् ।
विराजते सम्प्रति राजहंसः कासारतीरे ऽब्जतले सवंशः ॥१०॥ - इस समय सूर्य का तेज अति प्रचण्ड हो रहा है, इसलिए कमल-युक्त मृणाल के खण्ड को अपने मुख में लेकर सपरिवार यह राजहंस सरोवर के तौर पर बैठा हुआ राजहंस (श्रेष्ठ राजा) सा शोभित हो रहा है ॥१०॥
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