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अथ द्वादशः सर्गः
विलोक्य वीरस्य विचारवृद्धिमिहे येवाथ बभूव गृद्धिः । वृषाधिरूढस्य दिवाधिपस्यापि चार आत्तोरुतयेति शस्या ॥१॥ इस प्रकार वीर भगवान् की विचार वृद्धि को देखकर उनके प्रति ईर्ष्या करते हुए ही मानों वृष राशि पर आरूढ़ हुए सूर्य देव का संचार भी दीर्घता को प्राप्त हुआ, अर्थात् दिन बड़े होने लगे ॥१॥
स्वतो हिसंजृम्भितजातवेदा निदाधके रुग्ण इवोष्णरश्मिः । चिरादथोत्थाय करैरशेषान् रसान्निगृह्णात्यनुवादि अस्मि ॥२॥
इस निदाघ काल में (ग्रीष्म ऋतु में) स्वत: ही बढ़ी है अग्नि (जठराग्नि) जिसकी ऐसा यह उष्ण रश्मि (सूर्य) रुग्ण पुरुष के संमान चिरकाल से उठकर अपने करों (किरणों वा हाथों) से पृथ्वी के समस्त रसों को ग्रहण कर रहा है, अर्थात् खा रहा है, मैं ऐसा कहता हूँ ॥२॥
भावार्थ जैसे कोई रोगी पुरुष चिरकाल के बाद शय्या से उठे और जठराग्नि प्रज्वलित होने से जो मिले उसे ही अपने हाथों से उठाकर खा जाता है, उसी प्रकार सूर्य भी बहुत दिनों के पश्चात् बीमारी से उठकर के ही मानों पृथ्वी पर के सर्व रसों को सुखाते हुए उन्हें खा रहा है ॥
वोढा नवोढामिव भूमिजातश्छायामुपान्तान्न जहात्यथातः । अनारतंवान्ति वियोगिनीनां श्वासा इवोष्णाः श्वसना जनीनाम् ॥३॥
जैसे कोई नवीन विवाहित पुरुष नवोढ़ा स्त्री को अपने पास से दूर नहीं होने देता है, उसी प्रकार इस ग्रीष्मकाल में भूमि से उत्पन्न हुआ वृक्ष भी छाया को अपने पास से नहीं छोड़ता है । तथा इस समय वियोगिनी स्त्रियों के उष्ण श्वासों के समान उष्ण वायु भी निरन्तर चल रही है ॥३॥
मितम्पचेषूत किलाध्वगेषु तृष्णाभिवृद्धिं समुपैत्यनेन ।
हरे:
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: शयानस्य मृणालबुद्धया कर्षन्ति पुच्छं करिणः करेण ॥४॥ इस ग्रीष्मकाल के प्रभाव से पथिक जनों में कृपण जनों के समान ही तृष्णा (प्यास और धनाभिलाषा) और भी वृद्धि को प्राप्त हो जाती है । इस समय ग्रीष्म से विह्वल हुए हाथी अपनी सूंड से सोते हुए . सांप को मृणाल (कमलनाल) की बुद्धि से खींचने लगते हैं ॥४॥
वियोगिनामस्ति च चित्तवृत्तिरिवाभितप्ता जगती प्रक्लृप्ता । छाया कृशत्वं विदधाति तावद्वियोगिनीयं वनितेव हप्ता ॥५॥
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