________________
Trrrrrrrrrrrrrrrrr112 Trrrrrrrrrr
इदमिष्टमनिष्टं वेति विकल्प्य चराचरे । मुधैव द्वेष्टि हन्तात्मन्न द्वेष्टि तत्स्थलं मनः ॥४१॥ हे आत्मन् ! इस चराचर जगत् में यह वस्तु इष्ट है और यह अनिष्ट है, ऐसा विकल्प करके तु व्यर्थ ही किसी से राग और किसी से द्वेष करता है । दुःख है कि इस राग द्वेष के स्थल-भूत अपने मन से तू द्वेष नहीं कर रहा है ? ॥४१॥
तदद्य दुष्ट भावानां मयाऽऽत्मबलशालिना बहिष्कार उरीकार्यः सत्याग्रहमुपेयुषा ॥४२॥ इसलिए आत्म बलशाली मुझे सत्याग्रह को स्वीकार करते हुए अपने राग-द्वेषादि दुष्ट भावों का बहिष्कार अङ्गीकार करना चाहिए ॥४२॥
अभिवाञ्छसि चेदात्मन् सत्कर्तुं संयमद्रुमम् । नैराश्यनिगडे नैतन्मनोमर्कट माधर
॥४३॥ हे आत्मन् ! यदि तुम संयम रूप वृक्ष की सुरक्षा करना चाहते हो, तो अपने इस मनरूप मर्कट (बन्दर) को निराशा रूप सांकल से अच्छी तरह जकड़ कर बांधो ॥४३॥
अपार संसारमहाम्बुराशे रित्यात्मनो निस्तरणैकहे तुम् ।
विचार्य चातुर्यपरम्परातो निबद्धवानात्मविभुः स सेतुम् ॥४४॥ ___इस प्रकार आत्म-वैभव के स्वामी वीर भगवान् ने विचार कर इस अपार संसार रूप महा समुद्र के पार होने के एक मात्र हेतु स्वरूप सेतु (पुल) को अपनी चातुर्य-परम्परा से बांधा ॥४४॥
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्व यं, वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च . यं धीचयम् । तेनास्मिन्नुदिते स्वकर्मविभवस्यादर्शवद् व्यञ्जकः,
प्राग्जन्मप्रतिवर्णनोऽर्हत . इयान् एकादशस्थानकः ॥११॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणीभूषण बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा विरचित इस काव्य में अपने कर्म-वैभव को आदर्श (दर्पण) के समान प्रकट करने वाला और भगवान् के पूर्व जन्मों का वर्णन करने वाला यह ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org