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• मुझे देख कर वह मुनिराज बोले- हे भव्य, हे अंग (वत्स ) तू पहिले पुरुरवा भील था, फिर उत्तम धर्म के प्रभाव से आदि जिनेन्द्र के पुत्र भरत सम्राट् के पुत्रपने को प्राप्त हुआ, अर्थात् प्रथम तीर्थङ्कर का मरीचि नाम का पोता हुआ। फिर भी मिथ्यादर्शन के प्रभाव से सुधर्म का लोप करने वाला हुआ ॥२१॥
मागा विषादं पुनरप्युदारबुद्धे ! विशुद्धेर्गमिताऽसि सारम् । परिव्रजन् यः स्खलति स्वयं स चलत्यथोत्थाय सतां वतंसः ॥२२॥ किन्तु हे उदार बुद्धे ! अब तू विषाद को मत प्राप्त हो, तू बहुत शीघ्र विशुद्धि के सार को प्राप्त होगा। जो चलता हुआ गिरता है, वही सज्जन शिरोमणि मनुष्य स्वयं उठकर चलने लगता है ॥२२॥ उपात्तजातिस्मृतिरित्यनेनाश्रु सिक्त योगीन्द्रपदो निरेनाः 1
हिंसामहं प्रोज्झितवानथान्ते प्राणांश्च संन्यासितया वनान्ते ॥२३॥ साधु के उक्त वचन सुनकर जाति स्मरण को प्राप्त हो मैंने अपने आंसुओं से उन योगीन्द्र के चरणों को सींचकर हिंसा को छोड़ दिया और पाप-रहित होकर जीवन के अन्त में उसी वन के भीतर सन्यास से प्राणों को छोड़ा ||२३||
तस्मादनल्पाप्सरसङ्ग तत्वाद्भूत्वाऽमृताशी सुखसंहितत्वात् ।
आयुः समुद्रद्वितयोपमानक्षणं स्म जाने क्षणसम्विधानम् ॥२४॥ उस पुण्य के प्रभाव से मैंने अमृत - भोजी (देव) होकर अनेकों अप्सराओं से युक्त हो सुख - परम्परा को भोगते हुए वहां की दो सागरोपम आयु को एक क्षण के समान जाना ॥२४॥
श्रीधातकीये रजताचलेऽहं जातः परित्यज्य सुरस्य देहम् । सुरेन्द्रकोणीयविदेहनिष्ठे तदुत्तर श्रेणिगते विशिष्टे ॥२५॥ श्रीमङ्ग लावत्यभिधप्रदेश - स्थिते पुरे श्रीकनकाभिधे सन् । राजाग्रशब्दः कनकोऽस्य माला राज्ञी सहासीत्कनकेन बाला ॥२६॥ तयोर्गतोऽहं कुलसौधकेतुः सुराद्रिसम्पूजनहे तवे तु मुनिर्लान्तवमभ्युपेतस्त्रयोदशाब्ध्यायुरुपेत्य चेतः ॥२७॥
भूत्वा
तत्पश्चात मैं देव की देह को छोड़ कर धातकी खंड के पूर्व दिशा में उपस्थित पूर्व - विदेह के. रजताचल की उत्तर श्रेणी-गत विशिष्ट श्री मंगलावती नामक देश में विद्यमान श्री कनकपुर में कनक राजा की कनकमाला रानी के उनके कुलरूप भवन की ध्वजा स्वरूप पुत्र हुआ। उस भव में मैं सुमेरु पर्वत के चैत्यालयों की पूजन के लिए गया । पुनः मुनि बन कर ( और संन्यास से मरण कर ) लान्तव नाम के स्वर्ग को प्राप्त हुआ और वहां पर मैंने तेरह सागर की आयु पाई ॥२५-२६-२७॥
साकेतनामा नगरी सुधामाऽस्यां चाऽभवं श्रीहरिषेणनामा । श्रीवज्रषेणावनिपेन शीलवत्याः कुमारोऽहमथो सलील: ॥२ 1
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