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पुन उत्तम भवनों वाली जो साकेत नाम नगरी है, उसमें मैं (स्वर्ग से च्युत होकर श्री वज्रषेण राजा से शीलवती रानी के श्रीहरिषेण नाम का पुत्र हुआ और मैंने कुमार- काल नाना प्रकार की लीलाओं में बिताया ॥२८॥
युवत्वमासाद्य विवाहितोऽपि नोपासकाचारविचारलोपी । सन्ध्यासु सन्ध्यानपरायणत्वादेवं च पर्वण्युपवासकृत्वात् ॥२९॥
पुनः युवावस्था को प्राप्त कर मैं विवाहित भी हुआ, परन्तु उपासकों (श्रावकों) के आचार विचार का मैंने लोप नहीं किया, अर्थात् मैंने श्रावक धर्म का विधिवत् पालन किया। तीनों संद्या - कालों में मैं सन्ध्याकालीन कर्त्तव्य में परायण रहता था और इसी प्रकार पर्व के दिनों में उपवास करता था ॥२९॥
पात्रोपसन्तर्पणपूर्व भोजी भोगेषु निर्विण्णतया मनोजित् । अथैकदा श्रीश्रुतसागरस्य समीपमाप्त्वा वदतांवरस्य ॥३०॥ दिगम्बरीभूय तपस्तपस्यन्ममायमात्मा भुक्तोज्झितं भोक्तुमुपाजगाम पुनर्महाशुक्र सुपर्वधाम ॥३१॥
श्रुतसारमस्यन्
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मैं पात्रों के सन्तपण - पूर्व भोजन करता था, भोगों में विरक्त होने से मन को जीतने वाला था । तभी एक समय आचार्य - शिरोमणि श्री श्रुतसागर के समीप जाकर, दिगम्बरी दीक्षा लेकर और तप को तपता हुआ मेरा यह आत्मा श्रुत के सार को प्राप्त कर भोग करके छोड़े हुए भोगों को भोगने के लिए पुनः महा शुक्र स्वर्ग को प्राप्त हुआ ||३०-३१॥
प्राग्धातकीये सरसे विदेहे देशेऽथवा पुष्कलके सुगेहे । श्रीपुण्डरीकिण्यथ पूः सुभागी सुमित्रराजा सुव्रताऽस्य राज्ञी ॥३२॥ भूत्वा कुमार: प्रियमित्रनामा तयोरहं निस्तुलरूपधामा । षट्खण्डभूमीश्वरतां दधानो विरज्य राज्यादिह तीर्थभानोः ॥३३॥ गत्वान्तिकं धर्मसुधां पिपासुः श्रामण्यमाप्त्वा तपसाऽमुनाऽऽशु । स्वर्गं सहस्त्रारमुपेत्य दैवीमैमि स्म सम्पत्तिमपापसेवी ॥३४॥ पुनः धातकी खण्ड के सरस पूर्व विदेह के उत्तम गृहों वाले पुष्कल देश में श्री पुण्डरीकिणी पुरी के सुमित्र राजा और सुव्रता रानी के मैं अतुल रूप का धारी प्रिय मित्र नाम का कुमार हुआ । वहां पर षट् खण्ड भूमि की ईश्वरता को, अर्थात् स्वामित्व को धारण करता हुआ चक्रवर्ती बनकर (राज्यसुख भोगा । पुनः कारण पाकर) राज्य से विरक्त होकर तीर्थ के लिए सूर्य-स्वरूप आचार्य के पास जाकर और धर्म रूप अमृत के पीने का इच्छुक हो, मुनिपना अङ्गीकार कर वहां किये हुये तपश्चरण के फल से शीघ्र ही सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न होकर निष्पाप प्रवृत्ति करने वाले मैंने देवी सम्पत्ति को प्राप्त किया ॥ ३२-३३-३४॥
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