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108e तब रोष में मैंने ऐसा भाव-बन्ध (निदान) किया कि रे विशाख नन्दी ! मैं परभव में तुझे मारूंगा। पुन चित्त में समाधान को प्राप्त होकर मैं (वह विश्वनन्दी) पहले के समान ही तपश्चरण करके महाशुक्र नाम के स्वर्ग में गया ॥ १६ ॥
विशाखभूतिर्नभसोऽत्र जातः प्रजापतेः श्रीविजयो जयातः । मृगावतीतस्तनयस्त्रिपृष्ठ - नाम्नाऽप्यहं पोदनपुर्यथातः ॥१७॥
विशाखभूति का जीव स्वर्ग से च्युत होकर यहां पोदनपुरी में प्रजापति राजा और जया रानी से श्री विजय नामक पुत्र हुआ । और मैं उन्हीं राजा की दूसरी मृगावती रानी से त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ
॥१७॥
भावार्थ पूर्व भव के काका-भतीजे हम दोनों यहां पर क्रमशः बलभद्र और नारायण हुए । विशाखनन्दी समभूद् भ्रमित्वा नीलंयशामात्रुदरं स इत्वा । मयूरराज्ञस्तनयोऽश्वपूर्व-ग्रीवोऽलकायां धृतजन्मदूर्वः ॥ १८ ॥ विशाखनन्दी का जीव बहुत दिनों तक संसार में परिभ्रमण करके अलकापुरी में मयूर राजा और नीलंयशा माता के गर्भ में आकर अश्वग्रीव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका जन्मोत्सव उत्साह से मनाया गया ॥ १८ ॥
मोऽसौ त्रिखण्डाधिपतामुपेतोऽश्वग्रीव आरान्मम तार्क्ष्यकेतोः । मृतोऽसिना रौरवमभ्यवाप गतस्तदेवाहमथो सपापः
॥१९॥
वह अग्रीव (प्रतिनारायण बनकर ) तीन खण्ड के स्वामीपने को प्राप्त हुआ । ( किन्तु पूर्व भव के वैर से) वह, गरूड़ की ध्वजा वाले मुझ त्रिपृष्ठ नारायण की तलवार से मर कर रौरव नरक को प्राप्त हुआ और मैं भी पापयुक्त होकर उसी ही नरक में गया ॥ १९ ॥
निर्गत्य तस्माद्धरिभूयमङ्गं लब्ध्वाऽव्रजं चादिविलप्रसङ्गम् ।
ततोऽपि सिंहाङ्गमुपेत्य तत्र मयाऽऽपि कश्चिन्मुनिराट पवित्रः ॥२०॥
पुनः मैं उस नरक से निकल कर सिंह हुआ और मरकर प्रथम नरक गया । वहां से निकल कर मैं फिर भी सिंह हुआ । उस सिंह भव में मैंने किसी पवित्र मुनिराज को पाया, अर्थात् मुझे किसी मुनिराज के सत्संग का सुयोग प्राप्त हुआ ॥२०॥
स आह भो भव्य ! पुरुरवाङ्ग - भिल्लोऽपि सद्धर्मवशादिहाङ्ग । आदीशपौत्रत्वमुपागतोऽपि कुद्दक्प्रभावेण सुधर्मलोपी ॥२१॥
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