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________________ 107 ** इस उन्मार्ग के प्रचार वा स्वयं तथैव आचरण से मैंने जो दुष्कर्म उपार्जन किया, उससे संयुक्त होकर उसके फलस्वरूप नाना प्रकार की कुयोनियों में परिभ्रमण करके अन्त में शाण्डिल्य ब्राह्मण और उसकी पाराशरिका स्त्री के स्थावर नाम का श्रेष्ठ पुत्र हुआ ||१०|| भूत्वा परिव्राट् स गतो महेन्द्र- स्वर्गं ततो राजगृहे ऽपकेन्द्रः । जैन्या भवामि स्म च विश्वभूतेस्तुक् विश्वनन्दी जगतीत्यपूते ॥११॥ उस भव में भी परिव्राजक होकर तप के प्रभाव से माहेन्द्र स्वर्ग गया । पुनः वहां से च्युत होकर इस अपवित्र जगत् में परिभ्रमण करते हुए राजगृह नगर में विश्वभूति ब्राह्मण और उसकी जैनी नामक स्त्री के विश्वनन्दी नाम का पुत्र हुआ ॥११॥ विशाखभूतेस्तनयो विशाखनन्दी समैच्छत्पितुरात्तशाखम् । यद्विश्वनन्दिप्रथितं किलासीदुद्यानमभ्रे श्वरसान्द्र भासि ॥१२॥ विश्वभूति के भाई विशाखभूति का पुत्र विशाखनन्दी था । वह पिता के द्वारा विश्वनन्दी को दिये हुए नन्दन वन जैसे शोभायमान उद्यान को चाहता था ॥१२॥ राजा तुजेऽदात्तदहो निरस्य युवाधिराजं छलतो रणस्य । प्रत्यागतो ज्ञातरहस्यवृत्तः श्रामण्यकर्मण्यसको प्रवृत्तः ॥ १३ ॥ विशाखभूति राजा ने रण के बहाने से मुझ विश्वनन्दी को बाहिर भेज दिया और यह उद्यान अपने पुत्र को दे दिया । जब वह मैं विश्वनन्दी युद्ध से वापिस आया और सर्व वृत्तान्त को जाना, तो विरक्त होकर श्रामण्यकर्म में प्रवृत्त हो गया अर्थात् जिन दीक्षा ले ली ॥१३॥ तदेतदाकर्ण्य विशाखभूतिर्विचार्य वृत्तं जगतोऽतिपूति । दिगम्बरीभूय सतां वतंसः ययौ महाशुक्र सुरालयं स ॥१४॥ राजा विशाखभूति यह सब वृत्तान्त सुनकर और जगत् के हाल को अत्यन्त घृणित विचार कर दिगम्बर साधु बन गया और वह सज्जनों का शिरोमणि तप करके महाशुक्र नामक स्वर्ग को प्राप्त हुआ ||१४| श्रीविश्वनन्द्यार्य मवेत्य चर्यापरायणं मां मथुरानगर्याम् । विशाखनन्दी पति स्म भूरि ततोऽगमं रोषमहं च सूरिः ॥ १५ ॥ जब मैं मथुरा नगरी में चर्या के लिये गया हुआ था, उस समय विशाखनन्दी ने मुझे विश्वनन्दी जानकर मेरा भारी अपमान किया, जिससे साधु होते हुए भी मैं रोष को प्राप्त हो गया ॥ १५ ॥ हन्ताऽस्मि रे त्वामिति भावबन्धमथो समाधानि मनः प्रबन्धः । तप्त्वा तपः पूर्ववदेव नामि स्वर्गं महाशुक्र महं स्म यामि ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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