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रर106/ररररररररररररररररर उस समय यहां पर क्रमशः चौदह कुलकर उत्पन्न हुए । उनमें अन्तिम कुलकर नाभिराज थे । उनकी स्त्री का नाम मरुदेवी था । उसकी कुक्षि से दोनों के हृदय के अद्वितीय हार-स्वरूप श्री ऋषभदेव का अवतार हुआ ॥५॥
प्रजासु आजीवनिकाभ्युपायमस्यादिषट्कर्मविधिं विधाय ।
पुनः प्रववाज स मुक्ति हेतु-प्रयुक्तये धर्मगृहै क के तुः ॥६॥ उन्होंने प्रजाओं की आजीविका के उपायभूत असि, मषि, कृषि आदि षट् कर्मों का विधान करके पुनः मुक्ति-मार्ग को प्रकट करने के लिए तथा स्वयं मुक्ति प्राप्त करने के लिए परिव्राजकता को अंगीकार . किया, क्योंकि वे तो धर्म रूप प्रासाद के अद्वितीय केतु-(ध्वज) स्वरूप थे ॥६॥
एकेऽमुना साकमहो प्रवृत्तास्तप्तुं न शक्ताः स्म चलन्ति वृत्तात् । - यद्दच्छयाऽऽहारविहारशीला दधुर्विचित्रां तु निजीयलीलाम् ॥७॥
- उनके साथ सहस्रों लोग परिव्राजक बन गये । किन्तु उनमें से अनेक लोग उग्र तप को तपने के लिए समर्थ नहीं हुए और अपने चारित्र से विचलित होकर स्वच्छन्द आहार-विहार करने लगे । तब उन्होंने अपनी मनमानी अनेक प्रकार की विचित्र लीलाओं को धारण किया ॥७॥
भावार्थ - सत्य साधु मार्ग छोड़कर उन्होंने विविध वेषों को धारण कर धर्म का मनमाना आचरण एवं प्रचार प्रारंभ कर दिया ।
पौत्रोऽहमेतस्य तदग्रगामी मरीचिनाम्ना समभूच नामी ।
ययौ ममायं कपि-लक्षणेनार्जित मतं तत्कपिल-क्षणे ना ॥८॥ उन उन्मार्ग-गामियों का अग्रगामी (मुखिया) मैं मरीचि नाम से प्रसिद्ध भगवान् ऋषभदेव का पौत्र ही था । उस समय कपि (वानर) जैसी चंचलता से मैंने जो मत प्रचारित किया, वही कालान्तर में कपिलमत के नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥८॥
स्वर्गं गतोऽप्येत्य पुनर्द्विजत्वं धृत्वा परिवाजकतामतत्त्वम् । प्रचारयन् स्मास्मि सुद्दष्टिहान्या समादधानोऽप्यपथे तथाऽन्यान् ॥९॥ मरीचि के भव से आयु समाप्त कर मैं स्वर्ग गया। वहां से आकर द्विजत्व को धारण कर, अर्थात् ब्राह्मण के कुल में जन्म लेकर और नि:सारता वाली परिव्राजकता को पुनः धारण कर उसका प्रचार करता हुआ सुदृष्टि (सम्यग्दर्शन) के अभाव से अन्य जनों को भी उसी कुपथ में लगाता हुआ विचरने लगा ॥९॥
नानाकु योनीः समवेत्य तेन हन्ताऽथ दुष्कर्मसमन्वयेन । शाण्डिल्य-पाराशरिकाद्वयस्य पुत्रोऽभवं स्थावरनाम शस्यः ॥१०॥
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