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अथैकादशः सर्गः
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श्रृणु प्रवित् सिंहसमीक्षणेन प्राग्जन्मवृत्ताधिगमी क्षणेन । सन्निम्नगोपाङ्कितवारिपूरे मनस्तरिस्थो व्यचरत् प्रभूरे ॥१॥ हे विद्वज्जन ! सुनो - भगवान् ने सिंहावलोकन करते हुए (अवधि ज्ञान से) एक क्षण मात्र में अपने पूर्व जन्मों के वृत्तान्तों को जान लिया । तब वे नीचे लिखी हुई वाक्य-परम्परा से अंकित नदी के पूर में मनरूपी नौका पर बैठकर विचरने लगे, अर्थात् इस प्रकार से विचार करने लगे ॥१॥
निरामया वीतभयाः ककुल्याः श्रीदेवदेवीद्वितयेन तुल्याः ।
आसन् पुरा भूतलवासिनोऽपि अनिष्ट संयोगधरो न कोऽपि ॥२॥ बहुत पूर्वकाल में यहां पर सभी भूतल-वासी प्राणी निरामय (निरोग) थे, भय-रहित थे, भोगोपभोगों से सुखी थे और देव-देवियों के तुल्य सुखी युगल जीवन बिताते थे । उस समय कोई भी अनिष्ट संयोग वाला नहीं था ॥२॥
नानिष्ट योगेष्ट वियोगरूपाः कल्पद्रुमेभ्यो विवृतोक्त कूपाः । निर्मत्सरा हृद्यतयोपगूढाः परस्परं तुल्यविधानरूढाः ॥३॥ उस काल में कोई भी प्राणी अनिष्ट-संयोग और इष्ट वियोग वाला नहीं था । कल्पवृक्षों से उन्हें जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ प्राप्त होती थीं । उस समय के लोग मत्सर भाव से रहित थे और परस्पर समान आचरण-व्यवहार करते हुए अति स्नेह से रहते थे ॥३॥ भावार्थ - उस समय यहां पर भोग भूमि थी और सर्व मनुष्य सर्व प्रकार से सुखी थे । कालेन वैषम्यमिते नृवर्गे क्रौर्यं पशूनामुपयाति सर्गे । कल्पद्रुमौघोऽपि फलप्रकार दानेऽथ सङ्कोचमुरीचकार ॥४॥ तदनन्तर काल-चक्र के प्रभाव से मनुष्य वर्ग में विषमता के आने पर और पशुओं के क्रूर भाव को प्राप्त होने पर कल्पवृक्षों के समूह ने भी नाना प्रकार के फलों के देने में संकोच को स्वीकार कर लिया, अर्थात् पूर्व के समान फल देना बन्द कर दिया ||४||
सप्तद्वयोदार कुलङ्कराणामन्त्यस्य नाभेर्मरुदेवि आणात् । सीमन्तिनी तत्र हृदेकहारस्तत्कुक्षितोऽभूद् ऋषभावतारः ॥५॥
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