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________________ 104 आज जो कोई भी परस्पर विरुद्ध बुद्धिवाले दिखलाई दे रहे हैं हे आत्मन्, वे सब तेरी पूर्व भव की चेष्टा के ही परिकर्म के धारक हैं, क्योंकि तू ने पूर्व जन्म में अपने विचार विभाव परिणति से परिणत किये, उसीके ये सब परिणाम है । जैसे कि मोतियों में एक सूत्रता करने वाली सुई होती है ॥३८॥ भावार्थ जैसे भिन्न-भिन्न स्वतंत्र सत्ता वाले मोतियों में सुत्र (धागा) पिरोने का कार्य सुई करती है, उसी प्रकार विभिन्न व्यक्तित्व वाले पुरुषों में जो अपने विरोधी या अविरोधी दिखाई देते हैं, वह अपनी राग, द्वेषमयी सूची (सुई) रूप विभाव परिणति का ही प्रभाव है । गतमनुगच्छति यतोऽधिकांशः सहजतयैव तथा मतिमान् सः । अन्याननुकू लयितुं कुर्यात्स्वस्य सदाऽऽदर्शमयीं चर्याम् ॥३९॥ संसार में अधिकांश जन तो गतानुगत ही चलते हैं, किन्तु बुद्धिमान् तो वही है जो औरों को अनुकूल करने के लिए सदा सहज रूप से अपनी आदर्शमयी चर्या को करे ||३९|| श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्वयं, वाणीभूषण - वर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । तस्माल्लब्धभवे प्रगच्छति तमां वीरोदयाख्यानके, वीरस्य तत्रानके ॥१०॥ सर्गोऽसौ दशमश्च निष्क्र मणवाक् इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणी भूषण बाल ब्रह्मचारी भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा विरचित वीरोदय आख्यान में वीर के निष्क्रमण कल्याणक का वर्णन करने वाला दशवां सर्ग समाप्त हुआ ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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