________________
୧୯୧୧୧୧ ୧୧୨ ୧୧୧୧୧୧a103je????????????????
शपन्ति , क्षुद्र जन्मानो व्यर्थमेव विरोधकान् ।
सत्याग्रह प्रभावेण महात्मा त्वनुकूलयेत् ॥३४॥ क्षुद्र-जन्मा दीन पुरुष विरोधियों को व्यर्थ ही कोसते हैं । महापुरुष तो सत्याग्रह के प्रभाव से विरोधियों को भी अपने अनुकूल कर लेता है ॥३४॥
भावार्थ - इस श्लोक में प्रयुक्त महात्मा पद से गांधीजी और उनके सत्याग्रह की यथार्थता का कवि ने संकेत किया है ।
अथाने के प्रसास्ते बभवस्तपसो यगे ।
यत्कथा खलु धीराणामपि रोमाञ्चकारिणी ॥३५।। ___ इसके पश्चात् उन वीर प्रभु के तपश्वचरण के काल में ऐसे अनेक प्रसङ्ग आये, कि जिनकी कथा भी धीर जनों को भी रोमाञ्चकारी है ॥३५॥
भावार्थ - भगवान् के साढ़े बारह वर्ष के तपश्चरण काल में ऐसी-ऐसी घटनाए घटीं कि जिनके सुनने मात्र से ही धीर-वीरों के भी रोम खड़े हो जाते हैं । परन्तु भगवान् महावीर उन सब प्रसङ्गों पर खरे उतरे और उन्होंने अपने ऊपर आये हुए उपसर्गों (आपत्तियों) को भली भांति सहन किया और उन पर विजय प्राप्त की । इन घटनाओं का उल्लेख प्रस्तावना में किया गया है ।
किन्तु वीर प्रभुर्वीरो हेलया तानतीतवान् ।
झंझानिलोऽपि किं तावत्कम्पयेन्मेरुपर्वतम् ॥३६॥ किन्तु वीर प्रभु तो सचमुच ही वीर थे, उन्होंने उन सब प्रसंगों को कुतूहल-पूर्वक पार किया, अर्थात् उन पर विजय पाई । कवि कहते हैं कि क्या कभी झंझावायु भी मेरु पर्वत को कंपा सकती है ? अर्थात् कभी नहीं ॥३६॥
एकाकी सिंहवद्वीरो व्यचरत्स भुवस्तले । मनस्वी मनसि स्वीये न साहयमपेक्षते ॥३७॥
वे वीरप्रभु इस भूतल पर सिंह के समान अकेले ही विहार करते रहे । सो ठीक ही है, क्योंकि मनस्वी परुष अपने चित्त में दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं करते ॥३७।।
ये के ऽपि सम्प्रति विरुद्धधियो लसन्ति , त्वच्चेष्टि तस्य परिकर्मभृतो हि सन्ति । आत्मन् पुराऽजनि तवैव विभावसू चिन्, मुक्तासु सूत्रसमवायकरीव सूची
॥३८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org