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चिन्तितं हृदये तेन वीरं नाम वदन्ति माम् । किं क दैतन्मयाऽबोधि कीद्दशी मयि वीरता ॥२८॥ तब भगवान् अपने हृदय में विचार करने लगे - लोग मुझे वीर नाम से कहते हैं । पर क्या कभी मैंने यह सोचा है कि मुझमें कैसी वीरता है ? ॥२८॥
वीरता शस्त्रिभावश्चेद्भीरुता किं पुनर्भवेत् । परापेक्षितया दास्याद्यत्र मुक्तिर्न जातु चित् ॥२९॥ यदि शस्त्र संचालन का या शस्त्र ग्रहण करने का नाम वीरता है, तो फिर भीरुता नाम किसका होगा ? शस्त्र-ग्रहण करने वाली वीरता तो परापेक्षी होने से दासता है । इस दासता में मुक्ति कदाचित् भी सम्भव नहीं है ॥२९॥
वस्तु तो यदि चिन्त्येत चिन्तेतः कीद्दशी पुनः ।
अविनाशी ममात्मायं द्दश्यमेतद्विनश्वरम् ॥३०॥ ___ यदि वास्तव में वस्तु के स्वरूप का चिन्तवन किया जावे, तो मेरी यह आत्मा तो अविनाशी है और यह सर्व द्दश्यमान पदार्थ विनश्वर हैं । फिर मुझे चिन्ता कैसी ॥३०॥
विभेति मरमाद्दीनो न दीनोऽथामृतस्थितिः ।
सम्पदयन्विपदोऽपि सरितः परितश्चरेत् ॥३१।। दीन पुरुष मरण से डरता है । जो दीन नहीं है, वह अमृत स्थिति है, अर्थात् वीर पुरुष मरण से नहीं डरता है, क्योंकि वह तो आत्मा को अमर मानता है । उसके लिए तो चारों ओर से आने वाली विपत्तियां भी सम्पत्ति के लिए होती हैं । जैसे समुद्र को क्षोभित करने के लिए सर्व ओर से आने वाली नदियां उसे क्षुब्ध न करके उसी की सम्पत्ति बन जाती हैं ॥३१॥
यां वीक्ष्य वैनतेयस्य सर्पस्येव परस्य च । क्रूरता दूरतामञ्चेच्छू रता शक्तिरात्मनः ॥३२॥
जैसे गरुड़ की शक्ति को देखकर सर्प की क्रूरता दूर हो जाती है, उसी प्रकार वीर की आत्मशक्ति को देखकर शत्रु की क्रूरता दूर हो जाती है, क्योंकि शूरता आत्मा की शक्ति है ॥३२॥
शस्त्रोपयोगिने शस्त्रमयं विश्वं प्रजायते । शस्त्र द्दष्ट वाऽप्यभीताय स्पृहयामि महात्मने ॥३३।।
शस्त्र का उपयोग करने वाले के लिए यह विश्व शस्त्रमय हो जाता है । किन्तु शस्त्र को देख करके भी निर्भय रहने वाले महान् पुरुष की मैं इच्छा करता हूँ ॥३३॥
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