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________________ र ररररररररररर|101/रररररररररररररररररर इत्येवमनुसन्धान-तत्परे . जगदीश्वरे सुरर्षिभिरिहाऽऽगत्य संस्तुतं प्रस्तुतं प्रभोः ॥२२॥ इस प्रकार के विचारों में तत्पर जगदीश्वर श्री वर्धमान के होने पर देवर्षि लौकान्तिक देवों ने यहां आकर के प्रभु की स्तुति की ॥२२॥ पुनरिन्द्रादयोऽप्यन्ये समष्टीभूय सत्वरम् समायाता जिनस्यास्य प्रस्तावमनुमोदितुम् ॥२३॥ पुनः अन्य इन्द्रादिक देव भी शीघ्र एकत्रित होकर के जिन-भगवान् के इस गृहत्याग रूप प्रस्ताव की अनुमोदना करने के लिए आये ॥२३॥ विजनं स विरक्तात्मा गत्वाऽप्यविजनाकु लम् । निष्कपटत्वमुद्धर्तु पटानुज्झितवानपि ॥२४॥ उन विरक्तात्मा भगवान् ने अवि (भेड़) जनों से आकुल अर्थात् भरे हुए ऐसे विजन (एकान्त जनशून्य) वन में जाकर निष्कपटता को प्रकट करने के लिए अपने वस्त्रों का परित्याग कर दिया, अर्थात् वन में जाकर दैगम्बरी दीक्षा ले ली ॥२४॥ उच्चखान कचौधं स कल्मषोपममात्मनः । मौनमालब्धवानन्तरन्वेष्टं दस्युसंग्रहम् ॥२५॥ उन्होंने मलिन पाप की उपमा को धारण करने वाले अपने केश-समूह को उखाड़ डाला, अर्थात् केशों का लोच किया और अन्तरंग में पैठे हुए चोरों के समुदाय को ढूंढने के लिए मौन को अंगीकार किया ॥२५॥ मार्गशीर्षस्य मासस्य कृष्णा सा दशमी तिथिः । जयताजगतीत्येवमस्माकं भद्रताकरी ॥२६॥ वह मगसिर मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि है, जिस दिन भगवान् ने दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण की । यह हम सबके कल्याण करने वाली तिथि जगत् में जयवन्ती रहे ॥२६॥ दीपकोऽभ्युदियायाथ मनःपर्ययनामक : मनस्यप्रतिसम्पाती तमःसंहार कृत्प्रभोः ॥२७॥ दीक्षित होने के पश्चात् वीर प्रभु के मन में अप्रतिपाती (कभी नहीं छूटने वाला) और मानसिक अन्धकार का संहार करने वाला मनःपर्यय नाम का ज्ञान-दीपक अभ्युदय को प्राप्त हुआ । अर्थात् भगवान् के मन:पर्यय ज्ञान प्रकट हो गया ॥२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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