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________________ reeरररर|100 ररररररररररर यह संसार सम्प्रदाय के मोह को अंगीकार कर रहा है । यही कारण है कि बारम्बार प्रयत्न करता हुआ भी वह सत्य मार्ग को नहीं जानता है ॥१६॥ गतानुगतिक त्वेन सम्प्रदायः प्रवर्तते वस्तुत्वेनाभिसम्बद्धं सत्यमेतत्पुनर्भवेत् ॥१७॥ सम्प्रदाय तो गतानुगातिकता से प्रवृत्त होता है । (उसमें सत्य-असत्य का कोई विचार संभव नहीं है ।) किन्तु सत्य तो यथार्थ वस्तुत्व से सम्बद्ध होता है ॥१७॥ वस्तुता नैक पक्षान्तःपातिनीत्यत एव सा । सार्वत्वमभ्यतीत्यास्ति दुर्लभाऽस्मिञ्चराचरे ॥१८॥ वस्तुता अर्थात् यथार्थता एक पक्ष की अन्तः पातिनी नहीं है, वह तो सार्वत्व अर्थात् सर्वधर्मात्मकत्व को प्राप्त होकर रहती है और यह अनेकान्तता या सर्वधर्मात्मकता इस चराचर लोक में दुर्लभ है ॥१८॥ सगरं नगरं त्यक्त्वा विषमेऽपि समे रसः । वनेऽप्यवनतत्त्वेन सकलं विकलं यतः ॥१९॥ भगवान् विचार कर रहे हैं कि संसार की समस्त वस्तुएं विपरीत रूप धारण किये हुए दिख रही हैं जिसे लोग नगर कहते हैं वह तो सगर अर्थात् विष-युक्त है और जिसे लोग वन कहते हैं उसमें अवनतत्त्व है अर्थात् वह बाहिरी चकाचौंध से रहित है, फिर भी उसमें अवनतत्त्व है अर्थात् उसमें सभी प्राणियों की सुरक्षा है । इस लिए नगर को त्याग करके मेरा मन विषम (भीषण एवं विषमय) वन में रहने को हो रहा है ॥१९॥ कान्ता लता वने यस्मात्सौधे तु लवणात्मता । त्यक्त्वा गहमतः सान्द्रे स्थीयते हि महात्मना ॥२०॥ वन में कान्त (सुन्दर) लता है, क्योंकि वह कान्तार है अर्थात् स्त्री-सहित है । सौध में लवणात्मकता है, अर्थात् अमृत में खारापन है और सुधा (चूना) से बने मकान में लावण्य (सौन्दर्य) है यह विरोध देखकर ही महात्मा लोग घर को छोड़कर सान्द्र (सुरम्य) वन में रहते हैं ॥२०॥ विहाय मनसा वाचा कर्मणा सदनाश्रयम् । उपैम्यहमपि प्रीत्या सदाऽऽनन्दनकं वनम् ॥२१॥ मैं भी नगर को-जो कि सदनाश्रय है अर्थात सदनों (भवनों) से घिरा हुआ है, दूसरे अर्थ में - सद्-अनाश्रय अर्थात् सज्जनों के आश्रय से रहित है, ऐसे नगर को छोड़कर सज्जनों के लिए आनन्दकन्द-स्वरूप वन को अथवा सदा आनन्द देने वाले नन्दन वन को मन, वचन-काय से प्रेम पूर्वक प्राप्त होता हूँ ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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