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________________ रररररररररररर99रररररररररररररररर अहीनत्वं कि मादायि त्वया वक त्वमीयुषा । भुज्जानोऽङ्ग । मुहुर्भोगान् वह सीह नवीनताम् ॥१२॥ वक्रता (कुटिलता) को प्राप्त होते हुए क्या कभी तूने अहीनता (सर्प राजपना वा उच्चपना) को ग्रहण किया है । जिससे कि हे अंग, तू भोगों को बार-बार भोगते हुए भी नवीनता को धारण करता है ॥१२॥ ___ विशेषार्थ - इस श्लोक का श्लेष रूप दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि हे आत्मन्, तूने कुटिलता को अंगीकार करते हुए अर्थात् सर्प जैसी कुटिल चाल को चलते हुए भी कभी अहि-(सर्पो) के इनता अर्थात् स्वामीपने को नहीं धारण किया, अर्थात् शेषनाग जैसी उच्चता नहीं प्राप्त की । तथा पंचेन्द्रियों के विषय रूप भोगों (सो) को भोगते या भक्षण करते हुए भी कभी न वीनता अर्थात् गरुड़-स्वरूपता नहीं प्राप्त की ! यह आश्चर्य की बात है ।। स्वचेष्टितं स्वयं भुङ्क्ते पुमान्नान्यच्च कारणम् । झझलझलावशीभूता समेति व्येति या ध्वजा ॥१३॥ पुरुष अपनी चेष्टा के फल को स्वयं ही भोगता है, इसमें और कोई कारण नहीं हैं । जैसे झंझा वायु के वश होकर यह ध्वजा स्वयं ही उलझती और सुलझती रहती है ॥१३॥ वस्त्रेण वेष्टितः कस्माद् ब्रह्मचारी च सन्नहम् ।। दम्भो यन्न भवेत्किं भो ब्रह्म वर्त्मनि बाधकः ॥१४॥ मैं ब्रह्मचारी होता हुआ भी वस्त्र से वेष्टित क्यों हो रहा हूँ ? अहो, क्या यह दम्भ मेरे ब्रह्म (आत्म-प्राप्ति) के मार्ग में बाधक नहीं है ? ॥१४॥ जगत्तत्त्वं स्फुटीकर्तुं मनोमुकु रमात्मनः । यद्ययं देह वानिच्छे निरीह त्वेन मार्जयेत् ॥१५॥ यदि यह प्राणी अपने मनरूप दर्पण में जगत् के रहस्य को स्पष्ट रूप से देखने की इच्छा करता है, तो इसे अपने मन रूप दर्पण को निरीहता (वीतरागता) से मार्जन करना चाहिए ॥१५॥ __भावार्थ - जगत् के तत्त्वों का बोध सर्वज्ञता को प्राप्त हुए बिना नहीं हो सकता और सर्वज्ञता की प्राप्ति वीतरागता के बिना संभव नहीं है । अतः सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए पहले वीतरागता प्राप्त करनी चाहिए । लोकोऽयं सम्प्रदायस्य मोहमङ्गीकरोति यत् । मुहुः प्रयतमानोऽपि सत्यवर्त्म न विन्दति ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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