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________________ श्रीमतो वर्धमानस्य चित्ते चिन्तनमित्यभूत् । हिमाकान्ततया द्दष्ट् वा म्लानमम्भोरुहवजम् ॥१॥ शीत के आक्रमण से मुरझाये हुए कमलों के समूह को देखकर श्रीमान् वर्धमान भगवान् के चित्त में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ ॥१॥ भुवने लब्धजनुषः कमलस्येव माद्दशः । क्षणादेव विपत्तिः स्यात्सम्पत्तिमधिगच्छतः ॥२॥ इस संसार में जिसने जन्म लिया है और जो सम्पत्ति को प्राप्त करना चाहता है, ऐसे मेरे भी कमल के समान एक क्षण भर में विपत्ति आ सकती है ॥२॥ दश्यमस्त्यभितो यद्वद्धनुरैन्द्रं प्रसत्तिमत् । विषादायैव तत्पश्चान्नश्यदेवं प्रपश्यते ॥३॥ यह इन्द्र-धनुष सर्व प्रकार से दर्शनीय है, प्रसन्नता करने वाला है, इस प्रकार से देखने वाले पुरुष के लिए तत्पश्चात् नष्ट होता हुआ वही इन्द्र-धनुष उसी के विषाद के लिए हो जाता है ॥३॥ अधिकर्तुमिदं देही वृथा वाञ्छति मोहतः । यथा प्रयतते भूमौ गृहीतुं बालको विधुम् ॥४॥ संसार की ऐसी क्षण-भंगुर वस्तुओं को अपने अधिकार में करने के लिए यह प्राणी मोह से वृथा ही इच्छा करता है । जैसे कि बालक भूमि पर रहते हुए चन्द्र को ग्रहण करने का व्यर्थ प्रयत्न करता है ॥४॥ संविदन्नपि संसारी स नष्टो नश्यतीतरः । नावै त्यहो तथाप्येवं स्वयं यममुखे स्थितम् ॥५॥ यह संसारी जीव, वह नष्ट हो गया, यह नष्ट हो रहा है, ऐसा देखता-जानता हुआ भी आश्चर्य है कि स्वयं को यम के मुख में स्थित हुआ नहीं जानता है ॥५॥ किमन्यैरहमप्यस्मि वञ्चितो माययाऽनया धीवरोऽप्यम्बुपूरान्तःपाती यदिव झंझया ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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