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________________ Preeररररररररररररररररररररररर पुरतो' वह्निः पृष्ठे भानुर्विधुवदनाया जानुनि जानुः । उपरि तूलयुतवस्त्रकतानु निर्वाते स्थितिरस्तु सदा नुः ॥४४॥ इस शीतकाल में दिन के समय तो लोगों को सामने अग्नि और पृष्ठ भाग की ओर सूर्य चाहिए। तथा रात्रि में चन्द्र-वदनी स्त्री की जंघाओं में जंघा और ऊपर से अच्छी रुई से भरे वस्त्र (रिजाई) से ढका हुआ शरीर और वायु-रहित स्थान में अवस्थान ही सदा आवश्यक है ॥४४॥ एणो यात्युपकाण्डकाधरदलस्यास्वादनेऽपि श्रम, सिंहो हस्तिनमाक मेदपि पुरः प्राप्तं न कुण्ठक मः । विप्रः क्षिप्रमुपाक्षिपत्यपि करं प्रातर्विधौ नात्मनः, हा शीताऽऽक मणेन यात्यपि दशां संशोचनीयां जनः ॥४५॥ इस समय शीत के मारे हिरण अपने पास ही पृथ्वी पर पड़ी घास को उठा कर खाने में अति श्रम का अनुभव कर रहा है । स्वयं सामने आते हुए हाथी पर आक्रमण करने के लिए सिंह भी कुण्ठित क्रम वाला हो रहा है, अर्थात् पैर उठाने में असमर्थ बन रहा है । और ब्राह्मण प्रात:कालीन संध्याविधि के समय माला फेरने के लिए अपने हाथ को भी नहीं उठा पा रहा है । इस प्रकार हा ! प्रत्येक जन शीत के आक्रमण से अति शोचनीय दशा को प्राप्त हो रहा है ।।४५॥ श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्या यं, वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । वीरे स्वार्थसमर्थनैक परतां लोकस्य संशोचति, सम्प्राप्तस्य कथा तुषारभसदोऽस्मिन् तत्कृ ते भो कृतिन् ॥९॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणी-भूषण, बाल-ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा निर्मित इस काव्य में लोगों की स्वार्थ- परायणता और शीत की भयङ्करता का वर्णन करने वाला यह नवां सर्ग समाप्त हुआ ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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