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वैमुख्यमप्यस्त्वभिमानिनीनामस्तीह यावन्न निशा सुपीना । शीतानुयोगात्पुनरर्धरात्रे लगेन्नवोढापि धवस्य गात्रे ॥३९॥
इस शीतकाल में जब तक निशा (रात्रि ) अच्छी तरह परिपुष्ट नहीं हो जाती है, तब तक भले ही अभिमानिनी नायिकाओं की पति से विमुखता बनी रहे । किन्तु अर्ध रात्रि के होने पर शीत लगने के बहाने से (प्रौढ़ा की तो बात ही क्या) नवोढ़ा भी अपने पति के शरीर से स्वयं ही संलग्न हो जाती है ||३९||
तुषारसंहारकृतौ सुदक्षा नो चेन्मृगाक्षी समुपेति कक्षाम् । न यामिनीयं यमभामिनीति किन्त्वस्ति तेषां दुरितप्रणीतिः ॥ ४० ॥ तुषार के संहार करने में सुदक्ष मृगाक्षी जिसकी कक्षा ( बगल) में उपस्थित नहीं है, उसके लिए तो यह रात्रि यामिनी नहीं, किन्तु दारुण दुःख देने वाली यम - भामिनी ही है ॥ ४० ॥
शीतातुरै: साम्प्रतमाशरीरं गृहीतमम्भोभिरपीह चीरम् । शनैरवश्यायमिषात् स्वभावाऽसौ दंशनस्य प्रभुताऽद्भुता वा ॥ ४१ ॥ इस शीतकाल में औरों की तो बात ही क्या है, शीत से पीड़ित हुए जलाशयों के जलों ने भी बर्फ के बहाने से अपने सारे शरीर पर वस्त्र ग्रहण कर लिया है । अर्थात् ठंड की अधिकता से वे भी जम गये हैं। यह शीतऋतु की स्वाभाविक अद्भुत प्रभुता ही समझना चाहिए ॥४१॥
चकास्ति वीकासजुषां वराणां परिस्थितिः कुन्दककोरकाणाम् । लताप्रतानं गमिताऽत्र शीताद्भीता तु ताराततिरेव गीता ॥ ४२ ॥
देखो, इस समय विकास के सन्मुख हुई उत्तम लताओं में संलग्न कुन्द की कलियों की परिस्थिति ऐसी प्रतीत होती है, मानों वे कुन्दकी कलियां नहीं है, अपितु शीत से भयभीत हुई ताराओं की पंक्ति ही है ॥४२॥
शाखिषु विपल्लवत्वमथेतत् संकुचितत्वं खलु मित्रेऽतः 1 शैत्यमुपेत्य सदाचरणेषु कहलमिते द्विजगणेऽत्र मे शुक् ॥४३॥
इस शीतकाल को पाकर वृक्षों में पत्रों का अभाव, दिन में संकुचितता, अर्थात् दिन का छोटा होना, चरणों का ठिठरना और दांतों का कलह, अर्थात् किट किटाना मेरे लिए शोचनीय है । दूसरा अर्थ यह है कि कुटुम्ब जनों में विपत्ति का प्राप्त होना, मित्र का रूठना सत्-आचरण करने में शिथिलता या आलस्य करना और द्विजगण (ब्राह्मण-वर्ग) में कलह होना, ये सभी बातें मेरे लिये चिन्तनीय है ॥ ४३ ॥
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