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________________ ୧୦୦୦୯୯୯୯୯୯୯୦ 92 ୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୯୦୦୦ इस शीलकाल में दरिद्र पुरुष भी- जो कि फटी गूदड़ी को ओढ़े हुए हैं और जिसके छिद्रों से ठंडी हवा आ रही है, अतः शीत से पीड़ित होकर दांत किटकिटा रहा है, ऐसी दशा में भी वह विश्वोत्तम भगवान् का नाम लेते हुए ही कुटिया के एक कोने में संकुचित अंग किये हुए रात बिता रहा है ॥२५॥ कुशीलवा गल्लकफुल्लकाः पुनर्हिमतुराज्ञो विरदाख्यवस्तुनः । प्रजल्पनेऽनल्पतयैव तत्परा इवामरेशस्य च चारणा नराः ॥२६॥ इस समय गालों को फुला कर बड़बड़ाने वाले ऊंट लोग हिम ऋतु रूपी राजा की विरदावली के बखान करने में खूब अच्छी तरह से इस प्रकार तत्पर हो रहे हैं, जैसे कि राजा अमरेश की विरदावली चारण लोग बखानते हैं ॥२६॥ भावार्थ - यहां पर अमरेश पद से कवि ने अपने रणोली ग्राम के राजा अमरसिंह का स्मरण किया है। प्रकम्पिताः कीशकुलोद्भवास्ततं मदं समुज्झन्ति हिमोदयेन तम् । समन्तभद्रोक्तिरसेण कातराः परे परास्ता इव सौगतोत्तरा ॥२७॥ जैसे समन्तभद्र-स्वामी के सूक्ति-रस से सौगत (बौद्ध) आदि अन्य दार्शनिक प्रवादी लोग शास्त्रार्थ में परास्त होकर कायर बन अपने मद (अंहकार) को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार इस समय हिम के उदय से अर्थात् हिमपात होने से कीशकुलोद्भव वानर लोग भी कांपते हुए अपने मद को छोड़ रहे हैं ॥२७॥ रविर्धनुः प्राप्य जनीमनांसि किल प्रहुर्तं विलसत्तमांसि । स्मरो हिमैर्व्यस्तशरप्रवृत्तिस्तस्यासकौ किङ्करतां विभर्ति ॥२८॥ शीतकाल के हिमपात से अस्त-वयस्त हो गई है, शर-संचालन की प्रवृत्ति जिसकी ऐसा यह कामदेव अभिमान से अति विलास को प्राप्त स्त्रियों के मन को हरने में असमर्थ हो रहा है, अतएव उसकी सहायता के लिए ही मानों यह सूर्य धनुष लेकर अर्थात् धनु राशि पर आकर उस कामदेव की किंकरता (सेवकपना) को धारण कर रहा है, अर्थात् उसकी सहायता कर रहा है ॥२८॥ श्यामास्ति शीताकुलितेति मत्वा प्रीत्याम्बरं वासर एष दत्त्वा । किलाधिकं संकुचितः स्वयन्तु तस्यै पुनस्तिष्ठति कीर्तितन्तु ॥२९॥ यह श्यामा (रात्रि रूप स्त्री) शीत से पीड़ित हो रही है, ऐसा समझ कर मानों यह दिन (सूर्य) प्रीति से उसके लिए अधिक अम्बर (वस्त्र और समय) दे देता है और स्वयं तो संकुचित होकर के समय बिता रहा है, इस प्रकार उसके साथ स्नेह प्रकट करता हुआ सा प्रतीत होता है ॥२९॥ भावार्थ - शीतकाल में दिन छोटे और रात्रि बड़ी होने लगती है, इसे लक्ष्य में रखकर कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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