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________________ 93 उष्मापि भीष्मेन जितं हिमेन गत्वा पुनस्तन्निखिलं क्रमेण । तिरोभवत्येव भुवोऽवटे च वटे मृगाक्षीस्तनयोस्तटे च ॥३०॥ भयङ्कर हिम के द्वारा जीती गई वह समस्त उष्णता भागकर क्रम से पृथ्वी के कूप में, वट वृक्ष में और मृगनयनियों के स्तनों में तिरोहित हो रही है ॥३०॥ भावार्थ शीतकाल में और तो सर्व स्थानों पर शीत अपना अधिकार जमा लेता है, तब गर्मी भागकर उक्त तीनों स्थानों पर छिप जाती है, अर्थात् शीतकाल में ये तीन स्थल ही गर्म रहते हैं । सेवन्त एवन्तपनोष्मतुल्य - तारुण्यपूर्णामिह भाग्यपूर्णाः । सन्तो हसन्तीं मृगशावनेत्रां किम्वा हसन्तीं परिवारपूर्णाम् ॥३१॥ इस शीतकाल में सूर्य के समान अत्यन्त उष्णता को धारण करने वाली या अत्यन्त कान्तिवाली, एवं हंसती हुई तथा तारुण्य से परिपूर्ण मृगनयनियों को और अंगारों से जगमगाती हुई वा परिवार के जनों से घिरी अंगीठी को भाग्य से परिपूर्ण जन ही सेवन करते हैं ॥३१॥ शीतातुरोऽसौ तरणिर्निशायामालिङ्गच गाढं दयितां सुगात्रीम् । शेते समुत्थातुमथालसाङ्ग स्ततस्स्वतो गौरवमेति रात्रिः ॥३२॥ इस शीतकाल में शीत से आतुर हुआ यह सूर्य भी रात्रि में अपनी सुन्दरी स्त्री का गाढ़ आलिङ्गन करके सो जाता है, अतः आलस्य के वश से वह प्रभाव में शीघ्र उठ नहीं पाता है, इस कारण रात्रि स्वतः ही गौरव को प्राप्त होती है, अर्थात् बड़ी हो जाती है ॥३२॥ भावार्थ शीतकाल में रात बड़ी क्यों होती है, इस पर कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है । हिमारिणा विग्रहमभ्युपेतः हिमर्तुरेतस्य करानथेतः समाहरन् है मकु लानुकूले ददाति कान्ताकु चशैलमूले ॥३३॥ 1 यह हेमन्त ऋतु हिम के शत्रु सूर्य के साथ विग्रह ( युद्द) करने को उद्यत हो रही है, इसीलिए मानों उसके उष्ण करों (किरणों) को ले लेकर हैमकुल की अनुकूलता वाले अर्थात् हिम से बने या सुवर्ण से बने होने के कारण हैमकान्ति वाले स्त्रियो के कुच रूप शैल के मूल में रख देती है । ( इसीलिए स्त्रियों के कुच उष्ण होते हैं | ) ||३४|| महात्मनां संश्रुतपादपानां पत्राणि जीर्णानि किलेति मानात् प्रकम्पयन्ते दरवारिधारा विभावसुप्रान्तमिता विचारा: 1138 11 इस शीतकाल में संश्रुत (प्रसिद्ध प्राप्त) वृक्षों के पत्र भी जीर्ण होकर गिर रहे हैं, ऐसा होने से ही मानों दर अर्थात् जरासी भी जल की धारा लोगों को कंपा देती है । तथा इस समय लोगों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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