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सम्विभ्रती सम्प्रति नूतनं वयः समानयन्ती किल कूपतः पयः । तुषारतः सन्दधती सितं शिरस्तुजे भ्रमोत्पत्तिकरीत्यहो चिरम् ॥२१॥ इस शीतकाल में नवीन वय को धारण करने वाली और काले केशों वाली कोई स्त्री जब कुएं से जल भर कर घर को आती है और मार्ग में हिमपात होने से उसके केश श्वेत हो जाते हैं, तब उसके घर आने पर वह अपने बच्चे के लिए भी चिरकाल तक 'यह मेरी माता है, या नहीं' इस प्रकार के भ्रम को उत्पन्न करने वाली हो जाती है, यह आश्चर्य है ॥२१॥
विवर्णतामेव दिशन् प्रजास्वयं निरम्बरेषु प्रविभर्ति विस्मयम् ।
फलोदयाधारहरश्च शीतल-प्रसाद एषोऽस्ति तमां भयङ्करः ॥२२॥ यह शीतल-प्रसाद अर्थात् शीतकाल का प्रभाव बड़ा भंयकर है, क्योंकि यह प्रजाओं में (जन साधारण में) विवर्णता (कान्ति हीनता) को फैलाता हुआ और निरम्बरों (वस्त्र-हीनों) में विस्मय को उत्पन्न करता हुआ फलोदय के आधार भूत वृक्षों को विनष्ट कर रहा है ॥२२॥
भावार्थ - यहां कवि ने अपने समय के प्रसिद्ध ब्र. शीतल प्रसादजी की ओर व्यंग्य किया है, जो कि विधवा-विवाह आदि का प्रचार कर लोगों में वर्णशंकरता को फैला रहे थे, तथा दिगम्बर जैनियों में अति आश्चर्य उत्पन्न कर रहे थे और अपने धर्म-विरोधी कार्यों से लोगों को धर्म के फल स्वर्ग आदि की प्राप्ति के मार्ग में रोड़ा अटका रहे थे ।
रुचा कचानाकलयञ्जनीष्वयं नितम्बतो वस्त्रमुतापसारयन् । रदच्छदं सीत्कृतिपूर्वकं धवायते दधच्छै शिर आशुगोऽथवा ॥२३॥
अथवा यह शीतकालीन वायु अपने संचार से स्त्रियों में उनके केशों को बिखेरता हुआ, नितम्ब पर से वस्त्र को दूर करता हुआ सीत्कार शब्द पूर्वक उनके ओठों को चूमता हुआ पति के समान आचरण कर रहा है ॥२३॥
द्दढं कवाट दयितानुशायिन उपर्यथो तूलकुथोऽनपायिनः ।
अङ्गारिका चेच्छयनस्य पार्श्वतः शीतोऽप्यहो किं कुरुतादसावतः ॥२४॥ यदि मकान के किवाड़ दृढ़ता से बन्द हैं, मनुष्य अपनी प्यारी स्त्री का आलिंगन किये हुए आनन्द से सो रहा है, ऊपर से रूई भरी रिजाई को ओढ़े हुए है और शय्या के समीप ही अंगारों से भरी हुई अंगीठी रखी हुई है, तो फिर ऐसे लोगों का अहो, यह शीत क्या बिगाड़ कर सकेगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥२४॥
सग्रन्थिकन्थाविवरात्तमारुतैर्निशामतीयाद्विचलद्रदोऽत्र तैः । निःस्वोऽपि विश्वोत्तमनामधामतः कुटीरकोणे कुचिताङ्गको वत ॥२५॥
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