________________
सररररररररररर
ररररररररररररररर गार्हस्थ्य एवाभ्युदिताऽस्ति निर्वृतिर्यतो नृकीटैर्धियतेऽधुना मृतिः ।
अत्यक्तदारैकसमाश्रयैः कृती स कोऽपि योऽभ्युज्झितकामसत्कृतिः ॥६॥
अहो, आज गार्हस्थ्य दशा में ही मुक्ति संभव बतलाई जा रही है । उसी का यह फल है, कि ये नर-कीट स्त्री-पुत्रादि का आश्रय छोड़े बिना ही अब घर में मर रहे हैं । आज कोई बिरला ही ऐसा कृती पुरुष दृष्टिगोचर होता है, जो कि काम-सेवा एवं कुटुम्बादि से मोह छोड़ कर आत्म-कल्याण करता हो ॥६॥
जनैर्जरायामपि वाञ्छचते रहो नवोढया स्वोदरसम्भवाऽप्यहो । विक्रीयते निष्करुणैर्मृगीव तैर्दुष्कामि-सिंहस्य करे स्वयं हतैः ॥७॥
अहो आज लोग बुढ़ापे में भी नवोढ़ा के साथ संगम चाहते हैं । आज करुणा-रहित हुए कितने ही निर्दयी लोग दुष्कामी सिंह के हाथ में अपने उदर से उत्पन्न हुई बालिका को मृगी के समान स्वयं बेच रहे हैं ॥७॥
जनोऽतियुक्तिर्गुरुभिश्च संसजेत् पिताऽपि तावत्तनयं परित्यजेत् । वृथाऽरिता सोदरयोः परस्परमपीह नारी-नरयोश्च सङ्गरः ॥८॥
आज संसार में मनुष्य अयोग्य वचनों से, गुरु जनों का अपमान कर रहा है, और पिता भी स्वार्थी बनकर अपने पुत्र का परित्याग कर रहा है । एक उदर से उत्पन्न हुए दो सगे भाइयों में आज परस्पर अकारण ही शत्रुता दिखाई दे रही है और स्त्री-पुरुष में कलह मचा हुआ है ॥८॥
स्वरोटिकां मोटयितुं हि शिक्षते जनोऽखिलः सम्वलयेऽधुना क्षितेः। न कश्चनाप्यन्यविचारतन्मना नृलोक मेषा ग्रसते हि पूतना ॥९॥
आज इस भूतल पर समस्त जन अपनी-अपनी रोटी को मोटी बनाने में लग रहे हैं । कोई भी किसी अन्य की भलाई का विचार नहीं कर रहा है । अहो, आज तो यह स्वार्थ-परायणता रूपी राक्षसी सारे मनुष्य लोक को ही ग्रस रही है ॥९॥
जनी जनं त्यक्तुमिवाभिवाञ्छति यदा स शीर्षे पलितत्वमञ्चति । नरोऽपि नारी समुदीक्ष्य मञ्जुलां निषेवते स्त्रागभिगम्य सम्बलात् ॥१०॥
आज स्त्री जब अपने पति के शिर में सफेदी देखती है, तो उसे ही छोड़ने का विचार करती है । आज का मनुष्य भी किसी अन्य सुन्दरी को देखकर उसे शीघ्र बलात् पकड़ कर उसे सेवन कर रहा है ॥१०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org