________________
89
स्ववाञ्छितं सिद्धयति येन तत्पथा प्रयाति लोकः परलोकसंकथा । समस्ति तावत्खलता जगन्मतेऽनुसिच्यमाना खलता प्रवर्धते ॥११॥
आज जिस मार्ग से अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है, संसार उसी मार्ग से जा रहा है, परलोक की कथा तो आज खलता ( गगनलता) हो रही है । आज तो जगत् में निरन्तर सींची जाती हुई खलता (दुर्जनता) ही बढ रही है ॥११॥
समीहमानः स्वयमेष पायसं समत्तुमाराच्चणभक्षकाय सन् । धरातले साम्प्रतमर्दितोदरः प्रवर्तते हन्त स नामतो नरः ॥१२॥
आज का यह मानव स्वयं खीर को खाने की इच्छा करते हुए भी दूसरों को चना खाने के लिए उद्यत देखकर उदर- पीड़ा से पीड़ित हुआ दिखाई दे रहा है । दुःख है कि आज धरातल पर यह नाममात्र से मनुष्य बना हुआ है ॥१२॥
अहो पशूनां ध्रियते यतो बलिः श्मसानतामञ्चति देवतास्थली ।
यमस्थली वाऽतुलरक्तरञ्जिता विभाति यस्याः सततं हि देहली ॥१३॥ अहो, यह देवतास्थली ( मन्दिरों की पावन भूमि) पशुओं की बलि को धारण कर रही है और श्मसानपने को प्राप्त हो रही है । उन मन्दिरों की देहली निरन्तर अतुल रक्त से रञ्जित होकर यमस्थीली-सी प्रतीत हो रही है ॥१३॥
एकः सुरापानरतस्तथा वत पलङ्कषत्वात्कवरस्थली कृतम् । केनोदरं कोऽपि परस्य योषितं स्वसात्करोतीतरकोणनिष्ठितः ॥१४॥ कहीं पर कोई सुरा- ( मदिरा - ) पान करने में संलग्न है, तो कहीं पर दूसरा मांस खा-खाकर अपने उदर को कब्रिस्तान बना रहा है । कहीं पर कोई मकान के किसी कोने में बैठा हुआ पराई स्त्री को आत्मसात् कर रहा है ||१४||
कुतोऽपहारो द्रविणस्य द्दश्यते तथोपहारः स्ववचः प्रपश्यते । परं कलत्रं ह्रियतेऽन्यतो हटाद्विकीर्यते स्वोदरपूर्तये सटा ॥१५॥
कहीं पर कोई पराये धन का अपहरण कर रहा है, तो कहीं पर कोई अपने झूठे वचन को पुष्ट करने वाले के लिए उपहार दे रहा है । कहीं पर कोई हठात् पराई स्त्री को हर रहा है, तो कहीं पर कोई अपने उदर की पूर्ति के लिए अपनी जटा फैला रहा है ॥ १५ ॥
मुधेश्वरस्य प्रतिपत्तिहेतवेऽथ संहृतिर्यत्क्रियते जवञ्जवे । न ताद्दशी भूमिधनादिकारणानुवृत्तये कीद्दशि अस्ति धारणा ॥१६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org