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और जो अपने विवाह करने से राजपुत्रता की सार्थकता कही, सो उससे क्या राजपुत्रपना सार्थक होता है ? वह तो प्रजा की सेवा से ही सार्थक होता है । अतएव प्रजा की सेवा के लिए ही मैं ब्रह्मचर्य की आराधना करता हूँ ॥४३॥
राज्यमेतदनाय कौरवाणामभूदहो । तथा भरत-दोःशक्त्योः प्रपञ्चाय महात्मनोः ॥४४॥ संसार का यह राज्य तो अनर्थ के लिए ही है । देखो - कौरवों का इसी राज्य के कारण विनाश हो गया । भरत और बाहुबली जैसे महापुरुषों के भी यह राज्य प्रपंच का कारण बना ॥४४॥
राज्यं भुवि स्थिरं काऽऽसीत्प्रजायाः मनसीत्यतः । शाश्वतं राज्यमध्येतु प्रयते पूर्णरूपतः ॥४५॥
और फिर यह सांसारिक राज्य स्थिर भी कहां रहता है ? अतएव मैं तो प्रजा के मन में सदा स्थिर रहने वाला जो शाश्वत राज्य है उसके पाने के लिए पूर्ण रूप से प्रयत्नशील हूँ ॥४५॥
निशम्य युक्तार्थधुरं पिता गिरं पस्पर्श बालस्य नवालकं शिरः ।
आनन्दसन्दोहसमुल्लसद्वपुस्तया तदास्येन्दुमदो दशः पपुः ॥४६॥ भगवान् की यह युक्ति-युक्त वाणी को सुनकर के आनन्द सन्दोह से पुलकित शरीर होकर पिता ने अपने बालक के नव अलक (केश) वाले शिर का स्पर्श किया और उनके नेत्र भगवान् के मुखरूप चन्द्र से निकलने वाले अमृत को पीने लगे ॥४६॥
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्व यं, वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । वीरस्य क मतोऽभिवृद्धय युवतामाप्तस्य पित्रार्थनाऽ, भूद्वैवाहिक सम्विदेऽवददसौ निष्कामकीर्तिं तु ना ॥८॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणी भूषण बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा विरचित इस काव्य में वीर भगवान् की बाल्यावस्था से युवावस्था को प्राप्त होने पर पिता के द्वारा प्रस्तावित विवाह की अस्वीकारता और गृह-त्याग की भावना का वर्णन करने वाला यह आठवां सर्ग समाप्त हुआ ॥८॥
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