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________________ ୧୯୧୧୧୦୯୧୧୧୦୯୪୪୦୦୧84 jo୨୦୧୧୦୦୨୧୧୦୦୨୧୧୧୧ प्रमदा (स्त्री) के आश्रय से ये समस्त इन्द्रियां मद को प्राप्त होती हैं । यदि स्त्री का सम्पर्क न हो तो फिर ये देहधारी के होती हुई भी नहीं होती हुई सी रहती हैं ॥३१॥ तदीयरूपसौन्दर्यामृतराशेः सदाऽतिथी निजनेत्रझषौ कर्तुं चित्तमस्य प्रसर्पति ॥३२॥ स्त्री के होने पर मनुष्य का चित्त अपने दोनों नयन रूप मीनों को उसके रूप-अमृतसागर का अतिथि बनाने के लिए सदा उत्सुक रहता है । अर्थात् वह फिर सदा स्त्री के रूप सौन्दर्य के सागर में ही गोते लगाया करता है ॥३२॥ यन्मार्दवोपदानायोद्वर्त्तनादि समय॑ते सदा मखमलोत्तूलशयनाद्यनुकुर्वता ॥३३॥ __ और स्त्री होने पर ही, यह मनुष्य सदा मखमली बिस्तरों पर शयन-आसन आदि को करता हुआ शरीर की मार्दवता के लिए उबटन, तैल-मर्दन आदि को किया करता है ॥३३॥ न हि किञ्चिदगन्धत्वमन्धत्वमधिगच्छता । इति तैलफुलेलादि सहजं परिगृह्यते ॥३४॥ मेरे शरीर में कदाचित् कुछ भी दुर्गन्ध प्राप्त न हो जाय, इसी विचार से स्त्री के प्रेम में अन्धा बनकर मनुष्य रात-दिन तेल-फुलेल आदि को सहज में ही ग्रहण करता रहता है ॥३४॥ प्रसादयितुमित्येतां वपुषः परिपुष्ट ये । वाजीकरणयोगानामादरः क्रियतेऽन्वहम् ॥३५॥ और अपनी स्त्री को प्रसन्न करने के लिए शरीर की पुष्टि करने वाले वाजीकरण प्रयोगों में सदा आदर करता है, अर्थात् नित्य ही पुष्टि-कारक एवं बल-वीर्य-वर्धक औषधियों का सेवन करता रहता है ॥३५॥ वदत्यपि जनस्तस्यै श्रवसोस्तृप्तिकारणम् । स्वकर्णयोः सधासति तद्वचः श्रोतुमिच्छति ॥३६।। मनुष्य स्त्री को प्रसन्न करने के लिए तो स्त्री से मीठे वचन बोलता है और उस स्त्री के वचन कानों को तृप्ति के कारण है, इसलिए अपने कानों में सुधा को प्रवाहित करने वाले उसके वचनों को सुनने के लिए मनुष्य सदा इच्छुक रहता है । इस प्रकार स्त्रियों के निमित्त से पुरुष उसका दास बन जाता है ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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