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________________ 83 भावार्थ मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी कि तुम विवाह के प्रस्ताव को इस प्रकार अस्वीकार कर माता को सासू बनाने का अवसर नहीं दोगे । किमु युवतीर्थोऽत्र राजकुलोत्पन्नो हेतुनापि विनाऽङ्गज भवतादिति युवतिरहितो ॥२६॥ पिता ने पुन: कहा हे आत्मज ! बिना किसी कारण के ही क्या राजकुल में उत्पन्न यह युवतीर्थ ( युवावस्थारूपी तीर्थ) युवती रहित ही रहेगा ? अर्थात् अविवाहित रहने का तुम्हें कोई कारण तो बतलाना चाहिए ॥२६॥ - पुत्रप्रे मोद्भवं विनयेनेति मोहं सम्वक्तुं प्रभुः पुनः महामनाः पिता के पुत्र - प्रेम से उत्पन्न हुए इस मोह को देखकर महामना वीर भगवान् ने पुनः साथ इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया ॥२७॥ करत्रमेकतस्तात परत्र प्रायोऽस्मिन् यदभावे परं Jain Education International पितुर्ज्ञात्वा समारे भे t निखिलं किमित्यत्र कर्तव्यं ब्रू हि प्रेमपात्रं ॥२८॥ हे तात ! एक ओर कलत्र (स्त्री) है और दूसरी ओर यह सर्व दुःखी जगत् है । हे श्रीमन् इनमें से मैं किसे अपना प्रेम पात्र बनाऊं ? मेरा क्या कर्तव्य है ? इसे आप ही बतलाइये ॥२८॥ प्रियाया 1 किमस्मदीयबाहुभ्यां धूर्त्तानां पाशतो गलमालभे जन्तून् ताभ्यामुन्मोचये ऽथवा ॥२९॥ क्या मैं अपनी इन समर्थ भुजाओं से प्रिया के गले का आलिङ्गन करूं, अथवा इनके द्वारा धूर्तों के जाल से इन दीन प्राणियों को छुड़ाऊं ॥ ( आप ही बतलाइये ) ॥ २९ ॥ पुंसो बन्धनं भूतले भूतले स्त्रीनिबन्धनम् किञ्चित् सम्भवेच्च न बन्धनम् ॥३०॥ प्रायः इस भूतल पर पुरुष के स्त्री का बन्धन ही सबसे बड़ा बन्धन है, जिसके अभाव में और कोई दूसरा बन्धन सम्भव नहीं है । अर्थात् कुटुम्ब आदि के अन्य बन्ध स्त्री के अभाव में सम्भव नहीं होते हैं ॥३०॥ हृषीकाणि नो समस्तानि चेत्पुनरसन्तीव माद्यन्ति सन्ति यानि जगत् धीमता 1 प्रमदाऽऽश्रयात् देहिनः तु For Private & Personal Use Only 1 ॥२७॥ विनय के 1 ॥३१॥ www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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